Monday, December 13, 2010

ज्ञानमधुशाला (Ghazal) - Anwer Jamal

कैसे कोई समझाएगा पीड़ा का सुख होता क्या
गर सुख होता पीड़ा में तो खुद वो रोता क्या

इजाज़त हो तेरी तो हम कर सकते हैं बयाँ
दुख की हक़ीक़त भी और दुख होता क्या

ख़ारिज में हवादिस हैं दाख़िल में अहसास फ़क़त
वर्ना दुख होता क्या है और सुख होता क्या

सोच के पैमाने बदल मय बदल मयख़ाना बदल
ज्ञानमधु पी के देख कि सच्चा सुख होता क्या

भुला दे जो ख़ुदी को हुक्म की ख़ातिर
क्या परवाह उसे दर्द की दुख होता क्या

आशिक़ झेलता है दुख वस्ल के शौक़ में
बाद वस्ल के याद किसे कि दुख होता क्या

पीड़ा सहकर बच्चे को जनम देती है माँ
माँ से पूछो पीड़ा का सुख होता क्या
"""""""""
ख़ारिज - बाहर, हवादिस - हादसे, दाख़िल में - अंदर
हुक्म - ईशवाणी, ख़ुदी - ख़ुद का वुजूद, वस्ल- मिलन

Friday, December 10, 2010

शुक्र और शिकायत {Ghazal} - Farookh Qaisar

अपना ग़म भूल गए तेरी जफ़ा भूल गए
हम तो हर बात मुहब्बत के सिवा भूल गए

हम अकेले ही नहीं प्यार के दीवाने सनम
आप भी नज़रें झुकाने की अदा भूल गए

अब तो सोचा है दामन ही तेरा थामेंगे
हाथ जब हमने उठाए हैं दुआ भूल गए

शुक्र समझो या इसे अपनी शिकायत समझो
तुमने वो दर्द दिया है कि दवा भूल गए

Thursday, December 9, 2010

'दाग़ ए दिल' {Ghazal} -Hafeez Merathi

अजीब लोग हैं क्या मुंसिफ़ी की है
हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है

ये बांकपन था हमारा के ज़ुल्म पर हमने
बजाए नाला-ओ-फ़रियाद शायरी की है

ज़रा से पांव भिगोए थे जाके दरिया में
ग़ुरूर ये है कि हमने शनावरी की है

इसी लहू में तुम्हारा सफ़ीना डूबेगा
ये क़त्ल-ऐ-आम नहीं तुमने ख़ुदकुशी की है

हमारी क़द्र करो चौदहवीं के चाँद हैं हम
ख़ुद अपने दाग़ दिखाने को रौशनी की है

उदासियों को 'हफ़ीज़' आप अपने घर रखें
के अंजुमन को ज़रूरत शगुफ़्तगी की है

Monday, December 6, 2010

Message of peace अमन का पैग़ाम (एक इच्छा और वसीयत भारत माता की)



पैग़ाम है  माँ  का  ये  बेटे  के  नाम
 तेरा काम
है देना अमन का पैग़ाम

क्या माँ ने झूठ बोला था सोचा बहुत सुबह शाम
फिर सवाल किया मैंने लेकर प्रभु का नाम
निहारा उसने ऐसे मुझको जैसे मैं घनश्याम
फिर यूँ बोली मुझसे बेटा मत दे इल्ज़ाम
जो कहा उसे तू इक वसीयत समझ मेरी
जिसे पूरा करना ही अब है तेरा काम
हंस यहां अपशकुन करे जंगल जले तमाम
हर पेड़ पे लिखना अल्लाह तू पात पात पे राम
अपने रूप सा सुंदर तू बनाना दुनिया सारी
हर जन को पहुंचाकर 'अमन का पैग़ाम'
(मशहूर शायर जनाब अमीर नहटौरी के कलाम से मुतास्सिर होकर)

आग नफ़रत की दिलों से तुम बुझा दो लोगो
प्यार के फूल गुलशन में फिर खिला दो लोगो

हमने वेद ओ क़ुरआन से यही सीखा है
दर्स वहदत का दुनिया को पढ़ा दो लोगो

एक थे एक हैं और एक रहेंगे हम सदा
यह अमल करके दुश्मन को दिखा दो लोगो

विनती हरेक से यही करता है अनवर
धर्म के लिए मत की हर दिवार गिरा दो लोगो
(मशहूर शायर जनाब अमीर नह्टोरी के कलाम से मुतास्सिर होकर)

..........
वहदत-एकत्व 

Wednesday, September 15, 2010

Thanks to a great swami भारतीय मुस्लिम जगत सदा शंकराचार्य जी का आभारी रहेगा कि उन्होंने पवित्र कुरआन की 24 आयतों के पत्रक छापकर नफ़रत फैलाने वाले गुमराहों की अंधेर दुनिया को सत्य के प्रकाश से आलोकित कर दिया है। - Anwer Jamal

पवित्र कुरआन एक मौज्ज़ा और चमत्कार है। यह नफ़रतों को ख़त्म करता है और मुहब्बत पैदा करता है । यह अपने विरोधियों को अपनी ओर खींचता है और अपना बना लेता है। कुरआन इस्लाम का आधार है। इस्लाम हमेशा कुरआन के बल पर फैला है। कुरआन अपनी सत्यता को खुद मनवा रहा है। यह एक ऐसा चमत्कार है जिसे आज भी देखा जा रहा है। स्वामी जी ने पहले कुरआन के विरोध में किताब लिखी लेकिन उनका दिल साफ़ था इसीलिये जब उन्हें सत्य का ज्ञान हुआ तो उन्होंने सब के सामने कुरआन का सत्य रख दिया और बता दिया कि इस्लाम आतंक नहीं आदर्श है, जो जानना-मानना चाहे वह जान-मान ले कि कल्याण के लिए मुहब्बत की ज़रूरत है नफ़रत की नहीं । वास्तव में सबका मालिक एक है।
भारतीय मुस्लिम जगत सदा शंकराचार्य जी का आभारी रहेगा कि उन्होंने पवित्र कुरआन की 24 आयतों के पत्रक छापकर नफ़रत फैलाने वाले गुमराहों की अंधेर दुनिया को सत्य के प्रकाश से आलोकित कर दिया है।
 वे धन्यवाद के पात्र हैं और उनके साथ ही भाई ऐजाज़-उल-हक़ भी ,

अल्लाह मालिक, सबका मालिक एक ।
मान लो उसको और हो जाओ नेक ।।

इसके बाद भी कुछ लोग सत्य तथ्य को नहीं मानेंगे, उन्हें शैतान समझना चाहिये। उनका काम फ़ित्ने फैलाना होता है। उनके कुछ आक़ा होते हैं वे उनके प्रति जवाबदेह होते हैं। यह किताब उन गुमराह अफ़वाहबाज़ों की शिनाख्त के लिए भी एक बेहतरीन कसौटी का काम देगी।
शंकराचार्य जी ने बता दिया है कि एक आदर्श भगवाधारी को कैसा होना चाहिये ?
जिसके भी दिल में भगवा रंग के लिये आदर है, उसे उनका अनुसरण करना चाहिये ताकि आने वाले कल में कोई किसी भी रंग को आंतकवाद से जोड़ने की धृष्टता न कर सके।

Friday, September 10, 2010

Eid रोजेदारों को अल्लाह का इनाम है ईद - Anwer Jamal

नई दिल्ली। सेवाइयोंमें लिपटी मोहब्बतकी मिठास का त्योहार ईद-उल-फित्र भूख-प्यास सहन करके एक महीने तक सिर्फ खुदा को याद करने वाले रोजेदारों को अल्लाह का इनाम है। मुसलमानों का सबसे बडा त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व न सिर्फ हमारे समाज को जोडने का मजबूत सूत्र है बल्कि यह इस्लाम के प्रेम और सौहार्द्रभरे संदेश को भी पुरअसर ढंग से फैलाता है।
मीठी ईद भी कहा जाने वाला यह पर्व खासतौर पर भारतीय समाज के ताने-बाने और उसकी भाईचारे के सदियों पुरानी परम्परा का वाहक है। इस दिन विभिन्न धर्मो के लोग गिले-शिकवे भुलाकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं और सेवाइयांअमूमन उनकी तल्खी की कडवाहट को मिठास में बदल देती हैं। दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुकर्रम अहमद ने कहा कि ईद-उल-फित्र एक रूहानी महीने में कडी आजमाइश के बाद रोजेदार को अल्लाह की तरफ से मिलने वाला रूहानीइनाम है।
ईद को समाजी तालमेल और मोहब्बतका मजबूत धागा बताते हुए उन्होंने कहा कि यह त्योहार हमारे समाज की परम्पराओं का आइना है और एक रोजेदार के लिए इसकी अहमियत का अंदाजा अल्लाह के प्रति उसकी कृतज्ञता से लगाया जा सकता है। दुनिया में चांद देखकर रोजा रहने और चांद देखकर ईद मनाने की पुरानी परम्परा है और आज के हाईटेकयुग में तमाम बहस मुबाहिसेके बावजूद यह रिवाज कायम है।
व्यापक रूप से देखा जाए तो रमजान और उसके बाद ईद व्यक्ति को एक इंसान के रूप में सामाजिक जिम्मेदारियों को अनिवार्य रूप से निभाने का दायित्व भी सौंपती है। ऑलइंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना कल्बेजव्वाद ने कहा कि रमजान में हर सक्षम मुसलमान को अपनी कुल सम्पत्तिके ढाई प्रतिशत हिस्से के बराबर की रकम निकालकर उसे गरीबों में बांटना होता है। इससे समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी का निर्वहन तो होता ही है, साथ ही गरीब रोजेदार भी अल्लाह के इनाम रूपी त्योहार को मना पाते हैं। उन्होंने कहा कि व्यापक रूप से देखें तो ईद की वजह से समाज के लगभग हर वर्ग को किसी न किसी तरह से फायदा होता है। चाहे वह वित्तीय लाभ हो या फिर सामाजिक फायदा हो।
मौलाना जव्वाद ने कहा कि भारत में ईद का त्यौहार यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के साथ मिलकर उसके और जवां और खुशनुमा बनाता है। हर धर्म और वर्ग के लोग इस दिन को तहेदिल से मनाते हैं। उन्होंने कहा कि जमाना चाहे जितना बदल जाए लेकिन ईद जैसा त्यौहार हम सभी को अपनी जडों की तरफ वापस खींच लाता है और यह एहसास कराता है कि
पूरी मानव जाति एक है और इंसानियत ही उसका मजहब है।
http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&articleid=4895&category=6

Tuesday, September 7, 2010

Ghazal Eid ईद

                            ईद

क़फ़स में हंसते थे , गुलशन में जाके रोने लगे
परिन्दे अपनी कहानी सुनाके रोने लगे

बिछुड़ने वाले अचानक जो बरसों बाद मिले

वो मुस्कुराने लगे , मुस्कुराके रोने लगे

खुशी मिली तो खुशी में शरीक सबको किया

मिले जो ग़म तो अकेले में जाके रोने लगे

फिर आई ईद तो अब के बरस भी कुछ मां-बाप

गले से अपने खिलौने लगाके रोने लगे

- शफ़क़ बिजनौरी , निकट मदीना प्रेस

                                बिजनौर - 246701
               जनाब शफ़क़ बिजनौरी साहब से मेरी मुलाक़ात दिसम्बर 2008 में जम्मू के ‘वैष्णवी धाम‘ में उस समय हुई जबकि हम हरदम मौत के निशाने पर थे। बचकर घर लौटने की उम्मीद बहुत कम थी और घर से चलते वक्त मैं अपनी वसीयत करके चला था कि अगर मैं इस मिशन में मारा गया तो मेरे बाद उन्हें किन बातों का ख़ास ख़याल रखना है।
ईद क़रीब थी, घरवाले और बच्चे याद आ रहे थे। इसी दरम्यान जम्मू की एक बड़ी आर्ट यूनिवर्सिटी में एक तरही मुशायरे का आयोजन हुआ जिसमें जम्मू के शायर इकठ्ठा हुए। उसमें मेहमान शायर के तौर पर बिजनौर के दूसरे शायरों के साथ जनाब शफ़क़ बिजनौरी को भी बुलाया गया जोकि उस वक्त वैष्णवी धाम में हमारे साथ ही ठहरे हुए थे।
इस ग़ज़ल को मैंने सुना तो मेरी आंखों में आंसू आ गये। मेरी ही क्या वहां मौजूद हर आदमी की आंखें नम हो गयीं। यह ग़ज़ल मैंने उनसे अपनी डायरी में लिखवा ली थी और आज के दिन मैं इसे आपको गिफ़्ट करता हूं। इसे आपके लिए और आज के लिए ही बचाकर रखा गया था और महसूस कीजिये उन मां-बापों का दर्द जो अपने बच्चों को त्यौहार पर नये कपड़े, जूते और खिलौने नहीं दिला पाते। हर वर्ग के ग़रीबों का दर्द त्यौहार पर एकसा ही होता है।
त्यौहार आ रहा है। आपके लिए खुदा की तरफ़ से आज़माईश का एक मौक़ा आ रहा है। आपकी खुशी तभी मुकम्मल होगी जबकि समाज के कमज़ोर वर्ग को भी आप खुशी दे पाएं, अपनी खुशी में उन्हें शरीक कर पाएं।
फ़ितरा एक निश्चित दान है, रोज़े की ज़कात है। इसका मक़सद भी यही है। ईद की नमाज़ को जाने से पहले फ़ितरा ज़रूर अदा कर दीजियेगा।

Sunday, August 8, 2010

‘ सदा सहिष्णु भारत‘ - Anwer Jamal

कथा के चोले में सच को सजाने की एक अल्हड़ सी कोशिश

‘ सदा सहिष्णु भारत‘ शीर्षक लिखकर मिश्रा जी अपनी नयी पोस्ट पब्लिश कर दी। इसमें उन्होंने प्राचीन भारत के दार्शनिकों के हवाले देकर साबित किया था कि यहां लोगों को सोचने की आज़ादी आज से नहीं बल्कि हमेशा से है।----
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यह पोस्ट आधा तीतर आधा बटेर बनकर रह गई है। सबसे पहले सलीम साहब ने,फिर क्रमशः शहरोज़ भाई, उमर साहब और शाहनवाज़ भाई ने भी अपना फ़ोन पर अपना ऐतराज़ जताया था। उमर कैरानवी साहब ने इसे एक घटिया पोस्ट क़रार दिया है और गुरू वही है जो ग़लती बताये, मार्ग दिखाये और शिष्य वह है जो अपनी कमी को कुबूल करे और उसे दूर भी करे। वैसे इसे पोस्ट करते समय भी मेरे मन में खटक थी लेकिन ख़याल था कि एक कहानी है लेकिन ‘निष्पक्ष लेखकों‘ ने बताया कि कहानी है तो इसमें नाम असली क्यों हैं ?

... और वाक़ई यह एक बड़ी ग़लती है जिसकी वजह से जनाब मिश्रा जी अपने गुस्से में भी हक़ बजानिब हैं और सज़ा देने में भी। मेरे दिल में उनके लिये प्यार और सम्मान है और एक लेखक के लिये सबसे बड़ी नाकामी यह है कि वह अपने जज़्बात को भी ढंग से अदा न कर पाये। मैं इस कहानी को खेद सहित वापस लेता हूं और कमेंट्स ज्यों के त्यों रहने देता हूं ताकि मुझे अपनी ख़ता का अहसास होता रहे और जिन्हें पीड़ा पहुंची है उन्हें कुछ राहत मिल सके। मैं एक बार फिर आप सभी हज़रात से क्षमा याचना करता हूं।
ब्लॉगिंग का उद्देश्य स्वस्थ संवाद होना चाहिये जोकि अपने और देश-समाज के विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। सबका हित इसी में है। मेरे लेखन का उद्देश्य भी यही है। नाजायज़ दबाव मैं किसी का मानता नहीं और ग़लती का अहसास होते ही फिर मैं उसे रिमूव करने में देर लगाता नहीं।
सो यह पोस्ट रिमूव की जाती है।

Thursday, August 5, 2010

Tolerance in India सदा सहिष्णु भारत - Anwer Jamal

यह पोस्ट आधा तीतर आधा बटेर बनकर रह गई है। सबसे पहले सलीम साहब ने,फिर क्रमशः शहरोज़ भाई, उमर साहब और शाहनवाज़ भाई ने भी  फ़ोन पर अपना ऐतराज़ जताया था। उमर कैरानवी साहब ने इसे एक घटिया पोस्ट क़रार दिया है और गुरू वही है जो ग़लती बताये, मार्ग दिखाये और शिष्य वह है जो अपनी कमी को कुबूल करे और उसे दूर भी करे। वैसे इसे पोस्ट करते समय भी मेरे मन में खटक थी लेकिन ख़याल था कि एक कहानी है लेकिन ‘निष्पक्ष लेखकों‘ ने बताया कि कहानी है तो इसमें नाम असली क्यों हैं ?
... और वाक़ई यह एक बड़ी ग़लती है जिसकी वजह से जनाब मिश्रा जी अपने गुस्से में भी हक़ बजानिब हैं और सज़ा देने में भी। मेरे दिल में उनके लिये प्यार और सम्मान है और एक लेखक के लिये सबसे बड़ी नाकामी यह है कि वह अपने जज़्बात को भी ढंग से अदा न कर पाये। मैं इस कहानी को खेद सहित वापस लेता हूं और कमेंट्स ज्यों के त्यों रहने देता हूं ताकि मुझे अपनी ख़ता का अहसास होता रहे और जिन्हें पीड़ा पहुंची है उन्हें कुछ राहत मिल सके। मैं एक बार फिर आप सभी हज़रात से क्षमा याचना करता हूं।
ब्लॉगिंग का उद्देश्य स्वस्थ संवाद होना चाहिये जोकि अपने और देश-समाज के विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। सबका हित इसी में है। मेरे लेखन का उद्देश्य भी यही है। नाजायज़ दबाव मैं किसी का मानता नहीं और ग़लती का अहसास होते ही फिर मैं उसे रिमूव करने में देर लगाता नहीं। सो यह पोस्ट रिमूव की जाती है।

Monday, August 2, 2010

Law and order क़ानून - Anwer Jamal

कथा के दर्पण में सच को प्रतिबिम्बित करने का एक अनूठा प्रयास
ब्लॉगर्स की मीटिंग हो रही थी। सचमुच के बुद्धिजीवियों के दरम्यान वे भी चहक रहे थे जिन्हें बुद्धि से खुदा वास्ते का बैर है। बी.एन.शर्मा जैसे कुछ लोग मुखौटा लगाकर आये थे, मानो यहां कोई हैलोविन पार्टी चल रही हो। भाषणबाज़ी और प्रस्ताव आदि सभी रस्में पूरी हो चुकीं तो ‘डींगसेन‘ ने नाश्ता लगवा दिया। दो बार सभासदी का इलेक्शन हार चुके डींगसेन पत्रकार वार्ता का आयोजन करते करते बुद्ध की भांति रोटी के सत्य को पहचान चुके थे। अच्छा नाश्ता करने के बाद ब्लॉगर्स ने कभी उन्हें निराश नहीं किया था। वे सोने जैसे कमेंट करते हैं भले ही उन्होंने गोबर पर कचरा लेख क्यों न लिखा हो। जिन्हें पढ़कर मोटापे के बावजूद वे उड़न खटोले पर सवार से हो जाया करते हैं ।

            लोग पांच-सात के गुटों में बंटकर बातें बना रहे थे। इनमें से कोई अपनी बीवी से परेशान होकर ब्लॉगिंग में कूद पड़ा था और कोई बीवी की तलाश में। औरतों और लड़कियों की वजहें भी कमोबेश ऐसी ही थीं। हरेक अपने मिज़ाज या मक़सद के हिसाब से मंडली बनाये नाश्ते को कैलोरीज़ में बदल रहा था।
राष्ट्रवादी से नज़र आने वाले ब्लॉगर्स भी अपनी भड़ास निकाल रहे थे। ये लोग सेक्युलर्स की तरह
दिखावे के क़ायल नहीं होते, कड़वा बोलते हैं लेकिन बोलते वही हैं जो कि वे सोचते हैं।
एक बोला- ‘मुसलमान वंदे मातरम् नहीं गाते।‘
दूसरा बोला- ‘मुसलमान गाय काटते हैं।‘
तीसरा बोला- ‘मुसलमान मांस खाते हैं।‘
चैथा बोला- ‘मांस खाना तामसिक और राक्षसी प्रवृत्ति है।‘
पांचवा बोला- ‘मुसलमान राक्षस होते हैं, हिंसक होते हैं।‘
छठा बोला- ‘मुसलमान ‘लव जिहाद‘ कर रहे हैं।‘
सातवां बोला- ‘मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करके भारत पर क़ब्ज़ा जमाने का षड्यन्त्र रच रहे हैं।‘
इसलाम और मुसलमान की चिंता इनका प्रिय विषय है। सो जिसके जी में जो आ रहा था , बक रहा था, बिना इस बात की परवाह किये कि उनके दरम्यान कुछ मुस्लिम ब्लॉगर्स भी मौजूद हैं जो अन्दर ही अन्दर कसमसा रहे हैं। इनमें से कोई कहानी रचता है और कार्टून बनाता है। खुद को इस्लाम के विषय पर चुप रखकर ही वे इस मक़ाम तक पहुंचे थे कि सभी ने उन्हें ‘आत्मसात‘ कर लिया था। उनकी ‘समझदारी‘ की मिसाल देकर घाघ ब्लॉगर्स उन मुस्लिम ब्लॉगर्स को भी चुप रहने की नसीहत किया करते थे जो नासमझी में सच कहकर अस्थिरता पैदा करते रहते थे।
सुन तो सेक्युलर ब्लॉगर्स भी रहे थे लेकिन वे निरपेक्ष और निर्लिप्त से थे। उनके अन्दर भी कोई कसमसाहट न थी।
आठवां बोला- मुसलमान देश के गद्दार होते हैं।
‘डॉक्टर साहब‘ भी सब कुछ सुन और टाल रहे थे लेकिन हर चीज़ की एक हद होती है। उन्होंने अपनी चाय एक तरफ़ सरकाई और उन्हें जवाब देना शुरू किया और विभीषण से माधुरी गुप्ता तक के नाम गिना दिये। वेदों और स्मृतियों के हवालों से आर्यों के मांसाहार का हाल बता दिया। सच सुनते ही फ़ौरन माहौल में अस्थिरता सी आ गयी।
खुद को तर्क से ख़ाली पाकर राष्ट्रवादी हुल्लड़बाज़ डॉक्टर साहब के साथ धक्का-मुक्की करने लगे। डॉक्टर साहब ने भी एक कुर्सी उठाकर हवा में  चारों तरफ़ घुमा दी। लिस्ट बनाकर मारने वाले ऐसी भिड़न्त के आदी न थे। किसी का कान गया और किसी की नाक गई। सब तुरंत दूर हट गये। अब क़रीब कोई न आये।
राष्ट्रवादियों को कमज़ोर पड़ते देखकर सेक्युलर जमात से एक साहब उठ खड़े हुए। वे बोले- ‘आप डॉक्टर होकर ऐसी नासमझी कर रहे हैं , मुझे आपकी बुद्धि पर तरस आ रहा है। यह सब यहां नहीं चलेगा। आप पर क़ानून लागू हो जायेगा।‘
डॉक्टर साहब ने चुपचाप कुर्सी नीचे रख दी। वह जानते थे कि इस देश में अगर भीड़ एक आदमी का मर्डर भी कर दे तो उसपर कोई क़ानून लागू नहीं होता लेकिन अगर एक आदमी किसी के एक थप्पड़ भी मार दे तो उसपर क़ानून लागू हो जाता है। उन्होंने एक नज़र वहां ख़ामोश तमाशाई बने
मुस्लिम ब्लॉगर्स पर डाली। वे बदस्तूर समझदारी का परिचय दे रहे थे।
डॉक्टर साहब घूमकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गये। निकलते-निकलते उन्होंने सुना , लोग कह रहे थे - ‘इंजीनियर साहब ! आपने बड़े तरीक़े से उसे हैंडल किया।‘
उन्होंने कहा- मैंने तो केवल क़ानून का संदर्भ दिया था।‘
किसी ने कहा-‘ रियली गुड जॉब यू हैव डन, सर .‘
इंजीनियर साहब को धड़ाधड़ टिप्पणियां मिल रही थीं और वह भी प्रशंसा भरी। एक ब्लॉगर की जो मुराद होती है वह भरपूर तरीक़े से पूरी हो रही थी।
डींगसेन अन्दर ही अन्दर इंजीनियर साहब के टैक्ट से जलभुन कर कबाब हो रहा था लेकिन फिर भी मुस्कुरा रहा था।