Wednesday, October 19, 2011

जीवन की सार्थकता

एक राजा काफी वृद्ध और बीमार हो चला था। उसका जीवन दवाओं के सहारे ही चल रहा था। इस दौरान एक ज्योतिषी उसके पास आया और उसने कहा कि राजा का जीवन बस एक माह शेष है। इससे राजा और चिंतित हो गया। उसकी बीमारी और बढ़ गई। उन्हीं दिनों एक संत राजा को देखने आए। राजा ने उन्हें सारी बात बताई तो वे हंसकर बोले, 'आप तो अमर हैं।' इस पर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ। उसने संत से कहा, 'मेरा शरीर तो जर्जर हो चुका है। यह कभी भी टूट सकता है फिर मैं अमर कैसे हो सकता हूं। कृपया विस्तार से समझाएं।'

यह सुनकर संत राजा को एक जुलाहे के यहां ले गए। संत ने जुलाहे से पूछा, 'तुम कपड़ा तो बनाते हो पर बेचारी रूई के अस्तित्व को क्यों मिटाते हो?' इस पर जुलाहा बोला, 'यदि समय रहते रूई का उपयोग न किया जाए तो वायु और रेत इसको नष्ट कर देंगी। मैं तो इन्हें कपड़े में बदल इन्हें समाज के लिए उपयोगी बना रहा हूं।' अब संत ने राजा को समझाया, 'राजन्, दुनिया की हर वस्तु का एक न एक दिन मिटना तय है। 

इसलिए उनका सर्वोत्तम प्रयोग किया जाना चाहिए। इसी में उसकी सार्थकता है। शरीर का भी एक दिन नष्ट होना तय है। उसे स्थायी रूप से बचाया नहीं जा सकता। इसलिए उसके बचने की चिंता छोड़कर हमें उसका दूसरों के हित में प्रयोग करना चाहिए।' राजा संत का आशय समझ गया। वह मृत्यु की चिंता छोड़कर राजकाज में फिर से मन लगाने लगा। धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो गया।
संकलन: नरेंद्र वार्ष्णेय

साभार दैनिक नव भारत टाइम्स :  http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/10403461.cms

Monday, August 29, 2011

दस दिन का अनशन - हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई की यह रचना रोचक है और आज के संदर्भों से जुड़ी है। इन दिनों नेट पर पढ़ी जा रही है। आपने पढ़ी न हो तो पढ़ लें। इसे मैने  एक जिद्दी धुन  नाम के ब्लॉग से लिया है।


10 जनवरी

आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है कि संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."

बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.

सोचकर बोला, " मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है? "

मैंने कहा, " इस वक़्त हर बात के लिए हो सकता है. अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके क़ानून बनवा दिया है कि हर आदमी जटा रखेगा और उसे कभी धोएगा नहीं. तमाम सिरों से दुर्गन्ध निकल रही है. तेरी मांग तो बहुत छोटी है- सिर्फ एक औरत के लिए."

सुरेन्द्र वहां बैठा था. बोला, " यार कैसी बात करते हो! किसी की बीवी को हड़पने के लिए अनशन होगा? हमें कुछ शर्म तो आनी चाहिए. लोग हँसेंगे."

मैंने कहा, " अरे यार, शर्म तो बड़े-बड़े अनशनिया साधु-संतों को नहीं आई. हम तो मामूली आदमी हैं. जहाँ तक हंसने का सवाल है, गोरक्षा आन्दोलन पर सारी दुनिया के लोग इतना हंस चुके हैं कि उनका पेट दुखने लगा है. अब कम-से-कम दस सालों तक कोई आदमी हंस नहीं सकता. जो हंसेगा वो पेट के दर्द से मर जाएगा."

बन्नू ने कहा," सफलता मिल जायेगी?"

मैंने कहा," यह तो 'इशू' बनाने पर है. अच्छा बन गया तो औरत मिल जाएगी. चल, हम 'एक्सपर्ट' के पास चलकर सलाह लेते हैं. बाबा सनकीदास विशेषज्ञ हैं. उनकी अच्छी 'प्रैक्टिस' चल रही है. उनके निर्देशन में इस वक़्त चार आदमी अनशन कर रहे हैं."

हम बाबा सनकीदास के पास गए. पूरा मामला सुनकर उन्होंने कहा," ठीक है. मैं इस मामले को हाथ में ले सकता हूँ. जैसा कहूँ वैसा करते जाना. तू आत्मदाह की धमकी दे सकता है?"

बन्नू कांप गया. बोला," मुझे डर लगता है."

"जलना नहीं है रे. सिर्फ धमकी देना है."

"मुझे तो उसके नाम से भी डर लगता है."

बाबा ने कहा," अच्छा तो फिर अनशन कर डाल. 'इशू' हम बनायेंगे."

बन्नू फिर डरा. बोला," मर तो नहीं जाऊँगा."

बाबा ने कहा," चतुर खिलाड़ी नहीं मरते. वे एक आँख मेडिकल रिपोर्ट पर और दूसरी मध्यस्थ पर रखते हैं. तुम चिंता मत करो. तुम्हें बचा लेंगे और वह औरत भी दिला देंगे."


11 जनवरी

आज बन्नू आमरण अनशन पर बैठ गया. तम्बू में धुप-दीप जल रहे हैं. एक पार्टी भजन गा रही है - 'सबको
सन्मति दे भगवान्!'. पहले ही दिन पवित्र वातावरण बन गया है. बाबा सनकीदास इस कला के बड़े उस्ताद हैं. उन्होंने बन्नू के नाम से जो वक्तव्य छपा कर बंटवाया है, वो बड़ा ज़ोरदार है. उसमें बन्नू ने कहा है कि 'मेरी आत्मा से पुकार उठ रही है कि मैं अधूरी हूँ. मेरा दूसरा खंड सावित्री में है. दोनों आत्म-खण्डों को मिलाकर एक करो या मुझे भी शरीर से मुक्त करो. मैं आत्म-खण्डों को मिलाने के लिए आमरण अनशन पर बैठा हूँ. मेरी मांग है कि सावित्री मुझे मिले. यदि नहीं मिलती तो मैं अनशन से इस आत्म-खंड को अपनी नश्वर देह से मुक्त कर दूंगा. मैं सत्य पर हूँ, इसलिए निडर हूँ. सत्य की जय हो!'

सावित्री गुस्से से भरी हुई आई थी. बाबा सनकीदास से कहा," यह हरामजादा मेरे लिए अनशन पर बैठा है ना?"
बाबा बोले," देवी, उसे अपशब्द मत कहो. वह पवित्र अनशन पर बैठा है. पहले हरामजादा रहा होगा. अब नहीं रहा. वह अनशन कर रहा है."

सावित्री ने कहा," मगर मुझे तो पूछा होता. मैं तो इस पर थूकती हूँ."

बाबा ने शान्ति से कहा," देवी, तू तो 'इशू' है. 'इशू' से थोड़े ही पूछा जाता है. गोरक्षा आन्दोलन वालों ने गाय से कहाँ पूछा था कि तेरी रक्षा के लिए आन्दोलन करें या नहीं. देवी, तू जा. मेरी सलाह है कि अब तुम या तुम्हारा पति यहाँ न आएं. एक-दो दिन में जनमत बन जाएगा और तब तुम्हारे अपशब्द जनता बर्दाश्त नहीं करेगी."
वह बड़बड़ाती हुई चली गई.

बन्नू उदास हो गया. बाबा ने समझाया," चिंता मत करो. जीत तुम्हारी होगी. अंत में सत्य की ही जीत होती है."


13 जनवरी

बन्नू भूख का बड़ा कच्चा है. आज तीसरे ही दिन कराहने लगा. बन्नू पूछता है, " जयप्रकाश नारायण आये?"
मैंने कहा," वे पांचवें या छठे दिन आते हैं. उनका नियम है. उन्हें सूचना दे दी है."

वह पूछता है," विनोबा ने क्या कहा है इस विषय में?"

बाबा बोले," उन्होंने साधन और साध्य की मीमांसा की है, पर थोड़ा तोड़कर उनकी बात को अपने पक्ष में उपयोग किया जा सकता है."

बन्नू ने आँखें बंद कर लीं. बोला,"भैया, जयप्रकाश बाबू को जल्दी बुलाओ."

आज पत्रकार भी आये थे. बड़ी दिमाग-पच्ची करते रहे.

पूछने लगे," उपवास का हेतु कैसा है? क्या वह सार्वजनिक हित में है? "

बाबा ने कहा," हेतु अब नहीं देखा जाता. अब तो इसके प्राण बचाने की समस्या है. अनशन पर बैठना इतना बड़ा आत्म-बलिदान है कि हेतु भी पवित्र हो जाता है."

मैंने कहा," और सार्वजनिक हित इससे होगा. कितने ही लोग दूसरे की बीवी छीनना चाहते हैं, मगर तरकीब उन्हें नहीं मालूम. अनशन अगर सफल हो गया, तो जनता का मार्गदर्शन करेगा."


14 जनवरी

बन्नू और कमज़ोर हो गया है. वह अनशन तोड़ने की धमकी हम लोगों को देने लगा है. इससे हम लोगों का मुंह काला हो जायेगा. बाबा सनकीदास ने उसे बहुत समझाया.

आज बाबा ने एक और कमाल कर दिया. किसी स्वामी रसानंद का वक्तव्य अख़बारों में छपवाया है. स्वामीजी ने कहा है कि मुझे तपस्या के कारण भूत और भविष्य दिखता है. मैंने पता लगाया है क बन्नू पूर्वजन्म में ऋषि था और सावित्री ऋषि की धर्मपत्नी. बन्नू का नाम उस जन्म में ऋषि वनमानुस था. उसने तीन हज़ार वर्षों के बाद अब फिर नरदेह धारण की है. सावित्री का इससे जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है. यह घोर अधर्म है कि एक ऋषि की पत्नी को राधिका प्रसाद-जैसा साधारण आदमी अपने घर में रखे. समस्त धर्मप्राण जनता से मेरा आग्रह है कि इस अधर्म को न होने दें.

इस वक्तव्य का अच्छा असर हुआ. कुछ लोग 'धर्म की जय हो!' नारे लगाते पाए गए. एक भीड़ राधिका बाबू के घर के सामने नारे लगा रही थी----

"राधिका प्रसाद-- पापी है! पापी का नाश हो! धर्म की जय हो."

स्वामीजी ने मंदिरों में बन्नू की प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना का आयोजन करा दिया है.


15 जनवरी

रात को राधिका बाबू के घर पर पत्थर फेंके गए.

जनमत बन गया है.

स्त्री-पुरुषों के मुख से यह वाक्य हमारे एजेंटों ने सुने---
"बेचारे को पांच दिन हो गए. भूखा पड़ा है."

"धन्य है इस निष्ठां को."

"मगर उस कठकरेजी का कलेजा नहीं पिघला."

"उसका मरद भी कैसा बेशरम है."

"सुना है पिछले जन्म में कोई ऋषि था."

"स्वामी रसानंद का वक्तव्य नहीं पढ़ा!"

"बड़ा पाप है ऋषि की धर्मपत्नी को घर में डाले रखना."

आज ग्यारह सौभाग्यवतियों ने बन्नू को तिलक किया और आरती उतारी.

बन्नू बहुत खुश हुआ. सौभाग्यवतियों को देख कर उसका जी उछलने लगता है.

अखबार अनशन के समाचारों से भरे हैं.

आज एक भीड़ हमने प्रधानमन्त्री के बंगले पर हस्तक्षेप की मांग करने और बन्नू के प्राण बचाने की अपील करने भेजी थी. प्रधानमन्त्री ने मिलने से इनकार कर दिया.

देखते हैं कब तक नहीं मिलते.

शाम को जयप्रकाश नारायण आ गए. नाराज़ थे. कहने लगे," किस-किस के प्राण बचाऊं मैं? मेरा क्या यही धंधा है? रोज़ कोई अनशन पर बैठ जाता है और चिल्लाता है प्राण बचाओ. प्राण बचाना है तो खाना क्यों नहीं लेता? प्राण बचाने के लिए मध्यस्थ की कहाँ ज़रुरत है? यह भी कोई बात है! दूसरे की बीवी छीनने के लिए अनशन के पवित्र अस्त्र का उपयोग किया जाने लगा है."

हमने समझाया," यह 'इशू' ज़रा दूसरे किस्म है. आत्मा से पुकार उठी थी."

वे शांत हुए. बोले," अगर आत्मा की बात है तो मैं इसमें हाथ डालूँगा."

मैंने कहा," फिर कोटि-कोटि धर्मप्राण जनता की भावना इसके साथ जुड़ गई है."

जयप्रकाश बाबू मध्यस्थता करने को राज़ी हो गए. वे सावित्री और उसके पति से मिलकर फिर प्रधानमन्त्री से मिलेंगे.

बन्नू बड़े दीनभाव जयप्रकाश बाबू की तरफ देख रहा था.

बाद में हमने उससे कहा," अबे साले, इस तरह दीनता से मत देखा कर. तेरी कमज़ोरी ताड़ लेगा तो कोई भी नेता तुझे मुसम्मी का रस पिला देगा. देखता नहीं है, कितने ही नेता झोलों में मुसम्मी रखे तम्बू के आस-पास घूम रहे हैं."


16 जनवरी

जयप्रकाश बाबू की 'मिशन' फेल हो गई. कोई मानने को तैयार नहीं है. प्रधानमन्त्री ने कहा," हमारी बन्नू के साथ सहानुभूति है, पर हम कुछ नहीं कर सकते. उससे उपवास तुडवाओ, तब शान्ति से वार्ता द्वारा समस्या का हल ढूँढा जाएगा."

हम निराश हुए. बाबा सनकीदास निराश नहीं हुए. उन्होंने कहा," पहले सब मांग को नामंज़ूर करते हैं. यही प्रथा है. अब आन्दोलन तीव्र करो. अखबारों में छपवाओ क बन्नू की पेशाब में काफी 'एसीटोन' आने लगा है. उसकी हालत चिंताजनक है. वक्तव्य छपवाओ कि हर कीमत पर बन्नू के प्राण बचाए जाएँ. सरकार बैठी-बैठी क्या देख रही है? उसे तुरंत कोई कदम उठाना चाहिए जिससे बन्नू के बहुमूल्य प्राण बचाए जा सकें."

बाबा अद्भुत आदमी हैं. कितनी तरकीबें उनके दिमाग में हैं. कहते हैं, "अब आन्दोलन में जातिवाद का पुट देने का मौका आ गया है. बन्नू ब्राम्हण है और राधिकाप्रसाद कायस्थ. ब्राम्हणों को भड़काओ और इधर कायस्थों को. ब्राम्हण-सभा का मंत्री आगामी चुनाव में खड़ा होगा. उससे कहो कि यही मौका है ब्राम्हणों के वोट इकट्ठे ले लेने का."

आज राधिका बाबू की तरफ से प्रस्ताव आया था कि बन्नू सावित्री से राखी बंधवा ले.

हमने नामंजूर कर दिया.


17 जनवरी

आज के अखबारों में ये शीर्षक हैं---
"बन्नू के प्राण बचाओ!

बन्नू की हालत चिंताजनक!'

मंदिरों में प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना!"

एक अख़बार में हमने विज्ञापन रेट पर यह भी छपवा लिया---
"कोटि-कोटि धर्म-प्राण जनता की मांग---!
बन्नू की प्राण-रक्षा की जाए!
बन्नू की मृत्यु के भयंकर परिणाम होंगे !"

ब्राह्मण-सभा के मंत्री का वक्तव्य छप गया. उन्होंने ब्राह्मण जाति की इज्ज़त का मामला इसे बना लिया था. सीधी कार्यवाही की धमकी दी थी.

हमने चार गुंडों को कायस्थों के घरों पर पत्थर फेंकने के लिए तय कर किया है.

इससे निपटकर वही लोग ब्राह्मणों के घर पर पत्थर फेंकेंगे.

पैसे बन्नू ने पेशगी दे दिए हैं.

बाबा का कहना है क कल या परसों तक कर्फ्य लगवा दिया जाना चाहिए. दफा 144 तो लग ही जाये. इससे 'केस' मज़बूत होगा.


18 जनवरी

रात को ब्राह्मणों और कायस्थों के घरों पर पत्थर फिंक गए.

सुबह ब्राह्मणों और कायस्थों के दो दलों में जमकर पथराव हुआ.

शहर में दफा 144 लग गयी.

सनसनी फैली हुई है.

हमारा प्रतिनिधि मंडल प्रधानमन्त्री से मिला था. उन्होंने कहा," इसमें कानूनी अडचनें हैं. विवाह-क़ानून में संशोधन करना पड़ेगा."

हमने कहा," तो संशोधन कर दीजिये. अध्यादेश जारी करवा दीजिये. अगर बन्नू मर गया तो सारे देश में आग लग जायेगी."

वे कहने लगे," पहले अनशन तुडवाओ ? "

हमने कहा," सरकार सैद्धांतिक रूप से मांग को स्वीकार कर ले और एक कमिटी बिठा दे, जो रास्ता बताये कि वह औरत इसे कैसे मिल सकती है."

सरकार अभी स्थिति को देख रही है. बन्नू को और कष्ट भोगना होगा.

मामला जहाँ का तहाँ रहा. वार्ता में 'डेडलॉक' आ गया है.

छुटपुट झगड़े हो रहे हैं.

रात को हमने पुलिस चौकी पर पत्थर फिंकवा दिए. इसका अच्छा असर हुआ.

'प्राण बचाओ'---की मांग आज और बढ़ गयी.


19 जनवरी

बन्नू बहुत कमज़ोर हो गया है. घबड़ाता है. कहीं मर न जाए.

बकने लगा है कि हम लोगों ने उसे फंसा दिया है. कहीं वक्तव्य दे दिया तो हम लोग 'एक्सपोज़' हो जायेंगे.

कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा. हमने उससे कहा कि अब अगर वह यों ही अनशन तोड़ देगा तो जनता उसे मार डालेगी.

प्रतिनिधि मंडल फिर मिलने जाएगा.


20 जनवरी

'डेडलॉक '

सिर्फ एक बस जलाई जा सकी.

बन्नू अब संभल नहीं रहा है.

उसकी तरफ से हम ही कह रहे हैं कि "वह मर जाएगा, पर झुकेगा नहीं!"

सरकार भी घबराई मालूम होती है.

साधुसंघ ने आज मांग का समर्थन कर दिया.

ब्राह्मण समाज ने अल्टीमेटम दे दिया. १० ब्राह्मण आत्मदाह करेंगे.

सावित्री ने आत्महत्या की कोशिश की थी, पर बचा ली गयी.

बन्नू के दर्शन के लिए लाइन लगी रही है.

राष्ट्रसंघ के महामंत्री को आज तार कर दिया गया.

जगह-जगह- प्रार्थना-सभाएं होती रहीं.

डॉ. लोहिया ने कहा है क जब तक यह सरकार है, तब तक न्यायोचित मांगें पूरी नहीं होंगी. बन्नू को चाहिए कि वह सावित्री के बदले इस सरकार को ही भगा ले जाए.


21 जनवरी

बन्नू की मांग सिद्धांततः स्वीकार कर ली गयी.

व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए एक कमेटी बना दी गई है.

भजन और प्रार्थना के बीच बाबा सनकीदास ने बन्नू को रस पिलाया. नेताओं की मुसम्मियाँ झोलों में ही सूख गईं. बाबा ने कहा कि जनतंत्र में जनभावना का आदर होना चाहिए. इस प्रश्न के साथ कोटि-कोटि जनों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं. अच्छा ही हुआ जो शान्ति से समस्या सुलझ गई, वर्ना हिंसक क्रान्ति हो जाती.

ब्राह्मणसभा के विधानसभाई उमीदवार ने बन्नू से अपना प्रचार कराने के लिए सौदा कर लिया है. काफी बड़ी रकम दी है. बन्नू की कीमत बढ़ गयी.

चरण छूते हुए नर-नारियों से बन्नू कहता है," सब ईश्वर की इच्छा से हुआ. मैं तो उसका माध्यम हूँ."

नारे लग रहे हैं -- सत्य की जय! धर्म की जय!

Source : http://pramathesh.blogspot.com/2011/08/blog-post_1980.html#comment-form

Sunday, August 28, 2011

चूहों से परेशान तेनालीराम


तेनाली राम के बारे में

(1520 ई. में दक्षिण भारत के विजयनगर राज्य में राजा कृष्णदेव राय हुआ करते थे। तेनाली राम उनके दरबार में अपने हास-परिहास से लोगों का मनोरंजन किया करते थे। उनकी खासियत थी कि गम्भीर से गम्भीर विषय को भी वह हंसते-हंसते हल कर देते थे।

उनका जन्म गुंटूर जिले के गलीपाडु नामक कस्बे में हुआ था। तेनाली राम के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। बचपन में उनका नाम ‘राम लिंग’ था, चूंकि उनकी परवरिश अपने ननिहाल ‘तेनाली’ में हुई थी, इसलिए बाद में लोग उन्हें तेनाली राम के नाम से पुकारने लगे।

विजयनगर के राजा के पास नौकरी पाने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। कई बार उन्हें और उनके परिवार को भूखा भी रहना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी और कृष्णदेव राय के पास नौकरी पा ही ली। तेनाली राम की गिनती राजा कृष्णदेव राय के आठ दिग्गजों में होती है।)

चूहों की समस्या


चूहों ने तेनाली राम के घर में बड़ा उत्पात मचा रखा था। एक दिन चूहों ने तेनालीराम की पत्नी की एक सुंदर साड़ी में काटकर एक छेद बना दिया। तेनाली राम और उनकी पत्नी को बहुत क्रोध आया। उन्होंने सोचा-“इन्हें पकड़कर मारना ही पड़ेगा। नहीं तो न जाने ओर कितना नुकसान कर दें।”
बहुत कोशिश करने पर भी चूहे उनके हाथ नहीं लग रहे थे। वे संदूकों और दूसरे सामान के पीछे जाकर छिप जाते। भागते-दौड़ते, घंटों की कोशिश के बाद कहीं एक चूहा पकड़कर मार पाए। तेनाली राम बड़ा परेशान था।

आखिर वह अपने एक मित्र के पास गया, जिसने उसे सलाह दी कि चूहों से छुटकारा पाने के लिए एक बिल्ली पाल लो। वही इस मुसीबत का इलाज है। तेनाली राम ने बिल्ली पाल ली और सचमुच उसके यहां चूहों का उत्पात कम होने लगा। उसने चैन की सांस ली।

अचानक एक दिन उसकी बिल्ली ने पड़ोसियों के पालतू तोते को पकड़ लिया और मार डाला। घर की मालकिन ने अपने पति से शिकायत की और कहा कि इस दुष्ट बिल्ली को मार डालो। उसने तेनाली राम की बिल्ली का पीछा किया और उसे जा पकड़ा। वह उसको मारने ही वाला था कि तेनाली राम वहां आ गया।

तेनाली ने कहा-“भाई, मैंने यह बिल्ली चूहों से छुटाकारा पाने के लिए पाली है। हमें क्षमा कर दीजिए और बिल्ली मुझे वापस कर दीजिए। मुझ पर आपका बड़ा एहसान होगा।” पड़ौसी नहीं माना, बोला-“चूहे पकड़ने के लिए तुम्हें बिल्ली की क्या आवश्यकता है? मैं तो बिना बिल्ली के भी चूहे पकड़ सकता हूं।” और उसने बिल्ली को मार दिया।

कुछ दिनों बाद पड़ोसी को किसी ने एक सुन्दर संदूक उपहार भेजा। उसने अपने शयनकक्ष में जाकर संदूक खोला। उसी कमरे में उसकी पत्नी की कीमती साड़ियां रखी थीं। संदूक खोलते ही चूहों की सेना उसमें से उछलकर बाहर निकल आई। चूहे कमरे के चारों और दौड़ने लगे। वह उन्हें पकड़ने के लिए कभी बाएं तो कभी दाएं उछ्लता पर असफल रहा। उसके साथ उसके नौकर भी थे।

कई घंटों की उछलकूद के बाद कहीं जाकर उन्हें चूहों से छुटकारा मिला। पर इस दौरान उनका काफी नुकसान भी उठाना पड़ा। उनके कीमती गलीचों पर चूहों के खून के निशान पड़ चुके थे। ठोकर खाकर एक कीमती फूलदान भी टूट गया गया। 

थके हारे पड़ोसी ने जब संदूक में यह देखने का प्रयास किया कि आखिर किसने यह संदूक भेजी है, तो एक पर्ची पाई। उस पर लिखा था, “आपने कहा था कि आप बिना बिल्ली के ही चूहों पर काबू पा जाएंगे।

मैं परीक्षा के लिए कुछ चूहों को आपके यहां भेज रहा हूं। आपका तेनालीराम।” तेनालीराम का नाम पढ़ते ही पड़ोसी को सारी बात समझ में आ गई। उसने फौरन अपनी भूल के लिए तेनालीराम से माफी मांग ली।
Source : http://josh18.in.com/showstory.php?id=803872

महंगाई के चूहे -रश्मि गौड़

अभी कुछ दिन पहले लालाजी ने अपने ऊपर का मकान पाटिल साहब को लीज पर दिया था। पाटिल साहब किसी कंपनी में प्रबंध निदेशक थे। भारी किराया अदा करती थी उनकी कंपनी। पाटिल साहब का क्या कहना, गजब का रोब-दाब, शोफर ड्रिवन गाड़ी आती थी उन्हें लेने, चकाचक यूनिफॉर्म में जब शोफर तपाक से गाड़ी का दरवाजा खोलता तो पूरी कॉलोनी के लोग देखते रह जाते।
उस कॉलोनी में अधिकतर निवासी व्यवसायरत थे। उनके बाप-दादे ही ये कोठियां और व्यवसाय विरासत में दे गए थे। किसी की चांदी की दुकान थी, किसी की कपड़े की, तो कोई टेंट की दसियों दुकानें लिए बैठा था। आज तक इस कॉलोनी में कोई भी असली पढ़ा-लिखा नहीं आया था। यूं तो इंटर और मैट्रिक पास कई नौजवान थे, परंतु सभी ने अपने स्कूल लड़खड़ाते हुए पास किए थे। घर में कोई कमी नहीं थी, सो कोई बड़े भाई के साथ लग गया तो कोई पिता का हाथ बंटाने लगा, लाखों के वारे-न्यारे होने लगे, बिजनेस के गुर सीखने व सिखाने में जिंदगी शांति से बीत रही थी कि पाटिल साहब के आने पर मानो तेज हवाएं चलने लगीं। जनाब पाटिल साहब व उनकी पत्नी, जो कि किसी कॉलेज में प्राध्यापिका थीं, की चर्चा घर-घर होने लगी। ज्यों-ज्यों लोग-बाग उनके ठाट-बाट देखते, त्यों-त्यों उनका मन मेलजोल बढ़ाने को करता, पर पाटिल साहब व उनकी पत्नी किसी की ओर देखते भी न थे, धड़ाधड़ सीढ़ियों से नीचे उतरते और गाड़ी में बैठ कर ओझल। अंग्रेजी तो मानो उनकी मातृभाषा थी। लालाजी से भी बस दुआ-सलाम ही थी। घर में एक वृद्धा नौकरानी थी, जो बस सब्जी आदि लेने नीचे उतरती, पर बोलती किसी से भी नहीं थी। बस पाटिल दंपत्ति के जाने के बाद बालकनी में बैठती और सड़क पर आते-जाते लोगों को देखती रहती या सिलाई-बुनाई करती रहती। पाटिल दंपत्ति के आने पर खिड़की बंद हो जाती। ऐसे में भला कॉलोनी की महिलाओं में गजब की बेचैनी हो गई। किटी पार्टीज व ताश पार्टियों में उनकी चर्चा होने लगी। एक दिन मिसेज शर्मा मिसेज खन्ना से बोलीं, ‘अरे, इन मेम साहब को भी मेंबर बनाओ अपने क्लब का।’ ‘हुंह, इनके तो मिजाज ही नहीं मिलते, मेम साब होंगी तो अपने घर की। जितना ये दोनों मिया-बीवी मिल कर कमाते होंगे, उतना तो खन्ना साहब एक दिन में कमा लेते होंगे।’ मिसेज खन्ना ने खिन्न होकर कहा।
‘और क्या, वो मेंबर बनना तो दूर, किसी की ओर देखती तक नहीं।’ मिसेज सिंह को अपना डायमंड सेट पहनना व्यर्थ ही लग रहा था। उधर, लालाजी की ललाइन बड़ी दु:खी थीं। शेयर दलाल लालाजी रोज आकर हजारों रुपए की थैली उनके हाथ में पकड़ाते तो ललाइन की बड़ी इच्छा होती कि ऊपरवाली मेम साब भी देख लें एक नजर, पर उस किले से किसी को देखना तो दूर, एक आवाज भी सुनाई न देती। खैर, इसी प्रकार छह महीने बीत गए, पाटिल साहब से किसी का भी परिचय न हो सका। लालाजी के हाथ में हर पहली तारीख को किराए का चेक आ ही जाता था, सो समझ में ही न आ रहा था कि पहल कैसे की जाए। अचानक एक दिन मानों बिल्ली के भागों छींका टूट गया। पोस्टमैन एक तार लाया, जिसे लालाजी ने पाटिल दंपती के घर पर न होने की वजह से रिसीव कर लिया। जब पाटिल साहब घर पहुंचे तो लालाजी ने उन्हें नीचे नहीं रोका, बल्कि ऊपर जाने दिया, फिर थोड़ी देर बाद ऊपर पहुंच कर घंटी बजाई। पाटिल साहब की वृद्धा नौकरानी ने दरवाजा खोला तो लालाजी बोले, ‘पाटिल साहब से ही काम है, उन्हें बुला दीजिए।’ ‘आप थोड़ा बैठिए, साहब जरा बाथरूम में हैं।’ नौकरानी अंदर चली गई। लालाजी लपक कर ड्राइंग-रूम में जा बैठे। चारों ओर चौकन्नी नजरों से देखने लगे। उन्हें यह देख कर बड़ी हैरत हुई कि इतने बड़े साहब का ड्राइंग-रूम बड़ा ही साधारण था, न ढंग का सोफासेट, खिड़की-दरवाजों पर मामूली परदे, हालांकि रूम सुरुचिपूर्ण सजा था, परंतु ढंग का कोई सामान ड्राइंग-रूम में नहीं था। इतने में पाटिल साहब आ पहुंचे, नमस्ते का जवाब देते हुए आने का मकसद पूछा। जवाब में लालाजी ने वह तार पकड़ा दिया।
टेलीग्राम पढ़ कर पाटिल साहब कुछ गमगीन-से हो गए। लालाजी ने पूछा ‘क्या बात है जी, सब कुशल तो है न?’ उनकी आवाज में अपनेपन का आभास पाकर पाटिल साहब से भी न रहा गया, बोले, ‘मेरी दो बेटियां वैलहैम्स कॉलेज में देहरादून में पढ़ती हैं, पहाड़ों पर ऐजीटेशन चल रहा है, इसलिए वहां से तार आया है कि आकर बच्चों को ले जाएं।’ ‘तो की गल है जी, तुसी जाकर हुणे ही ले आओ। हम आपके घर को देख लेंगे।’ लालाजी ने फौरन मदद का हाथ बढ़ाया। ‘घर की चिंता नहीं ब्रदर, पर ये देहरादून आना-जाना हमारे बजट में नहीं था। अब दो-तीन हजार रुपए यूं ही खर्च हो जाएंगे।’ पाटिल साहब की मजबूरी अब समझ में आई लालाजी को। लालाजी ने पाटिल साहब की ओर देखा और बोले, ‘आप बुरा न मानो तो एक सुझाव है जी।’ ‘हां-हां कहिए!’ कह कर साहब ने मुंह के बुझे चुरुट को जलाते हुए चिंतामग्न अवस्था में कहा।
‘आप जी, थोड़ा-बोत रुपया शेयर में लगाया करो।’ लालाजी बोले।
‘पर हमको शेयर्स के बारे में कुछ नहीं मालूम।’ पाटिल साहब एक्सेंट से बोले।
‘अजी, बंदा कब काम आएगा, साड्डा तो धंधा ही ये है।’ लालाजी उमगते हुए बोले। लालाजी आश्चर्यचकित थे कि इस अभेद्य से दिखने वाले किले को किस कदर महंगाई के चूहों ने खा रखा है। खैर, इसके बाद साहब की दोनों बेटियां घर पर आ गईं। लालाजी के यहां आना-जाना शुरू हो गया। पता नहीं, लालाजी ने उन्हें क्या गुर सिखाए कि पाटिल दंपती के मुख पर संतोष के भाव रहने लगे, मातृभाषा हिंदी होने लगी। दो बच्चियों के लालन-पालन, उनके करियर, शादी की चिंता के बादल छंटने लगे। शेयर की आमदनी से घर भी अच्छा सज गया। इधर, कॉलोनी के निवासियों ने अपने बच्चों को इस बिजनेसवाले माहौल से दूर हॉस्टल में डालना शुरू कर दिया, जिससे वे भी पाटिल साहब जैसे रोबीले अफसर बन सकें।
Source : http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-187478.html

Wednesday, August 3, 2011

आप क्या जानते हैं हिंदी ब्लॉगिंग की मेंढक शैली के बारे में ? Frogs online

पाताल को जाती हुई हिंदी ब्लॉगिंग का गुज़र दिल्ली के एक कुएँ से हुआ तो उसे कुछ मेंढकों ने लपक लिया और ब्लॉगिंग शुरू करते ही उस पर एक छत्र राज्य की स्कीम भी बना ली । वे चाहते थे कि तमाम हिंदी ब्लॉगर्स की नकेल उनके हाथ में रहे ताकि ब्लॉगिंग में वही टिके जिसे वे टिकाना चाहें और जो उनकी चापलूसी न करे , उसे वे उखाड़ फेंके चाहे वह एक सच्चा आदमी ही क्यों न हो।
इसके लिए उन्होंने टिप्पणी को बतौर चारा इस्तेमाल किया और तय किया कि टिप्पणी को मीठी रेवड़ियों की तरह बस अपनों में ही बांटा करेंगे। इनके लालच में दूसरे लोग भी जुड़ने लगेंगे जिससे अपना दायरा और रूतबा बढ़ेगा। बढ़ता दायरा लोगों के लालच को और बढ़ाएगा और इस तरह अपना दायरा और बढ़ जाएगा। बस, तब हम होंगे हिंदी ब्लॉगिंग की तक़दीर के मालिक और हिंदी ब्लॉगर्स हमारे सामने झुके होंगे अपने घुटनों पर।
अपनी ताक़त दिखाने के लिए उन्होंने ब्लॉगर्स मीट भी की और अपनी अपनी पोस्ट में सभी ने एक दूसरे को सकारात्मक और महान विचारक bhi घोषित कर दिया । सूद खाने वाले और शराब पीने वाले इन ब्लॉगर्स में कोई तो ऐसे ऐलान भी कर गुज़रा जिन्हें सुनकर स्वर्णदंत दानी कर्ण भी पितृलोक में मुस्कुरा पड़ा ।
इन सब कोशिशों के बावजूद अपने कुएं से बाहर के किसी इंसान ब्लॉगर की नकेल उनके हाथ न आ सकी । तब उन्होंने टर्रा कर बहुत शोर मचाया और सोचा कि इंसान शायद इससे डर जाये लेकिन जब बात नहीं बनी तो वे समझ गए कि 'इन चेहरों को रोकना मुमकिन नहीं है।'
इस बार भी उनसे सहमत वही थे जो उनके साथ कुएँ में थे ।

इंसान ने कुएं की मुंडेर से देख कर उनकी हालत पर अफ़सोस जताया और हिंदी ब्लॉगिंग को मेंढकों की टर्र टर्र से मुक्त कराने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया ।
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कुछ उपयोगी पोस्ट्स जिनसे करेला जा चढ़ता है नीम पर और सुहागा सोने पर
(1) ब्लॉगर्स  मीट के बारे में ; बिना लाग लपेट के सुना रही हैं खरी खरी Lady Rachna

Tuesday, May 24, 2011

अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है ? Part 1 (गहन विश्लेषण पर आधारित भविष्य की सुरक्षा का उपाय बताती एक प्रतीक कथा ) - Dr. Anwer Jamal

ध्यानी बहुत हिम्मत वाला था और ज्ञानी भी। वह जान चुका था कि जगत मिथ्या है और रिश्ते माया का बंधन। उसने कड़ी साधना की और अब वह मान-अपमान के भावों से ऊपर उठ चुका था। सभी दर्शन उसके नित्य व्यवहार में समा चुके थे। वंश चलाने के लिए उसने विवाह तो कर लिया लेकिन उसके विचारों में कोई परिवर्तन न आया।
एक रोज़ वह अपनी नई नवेली पत्नी सत्या को साथ लेकर ससुराल पहुंचे तो बस से उतरते-उतरते रात हो गई और बस स्टैंड पर कोई रिक्शा वग़ैरह भी न था। घर वहां से 2 किमी. दूर था। रास्ता कम करने के लिए ध्यानी जी बाग़ से होकर गुज़रने लगे तो ज़ेवरों से लदी उनकी पत्नी डरते-डरते बोली -‘कहां जाते हो जी, कोई गुंडा बदमाश मिल गया तो ?’
‘अरे मूर्ख, अल्पविश्वासी स्त्री ! क्या तू नहीं जानती कि तू किसके साथ जा रही है ?‘-ध्यानी जी ने अपनी भोली पत्नी को लताड़ा।
‘किसके साथ जा रही हूं मैं ?‘-वह सचमुच ही भोली थी।
‘अपने पति के साथ, जो किसी भी चीज़ से नहीं डरता। तू भी निर्भय होकर चल।‘-ध्यानी जी ने आत्मविश्वास के शिखर से कहा।
‘आपको भला डर क्यों नहीं लगता ?‘-पत्नी ने उत्सुकता से पूछा तो रास्ता काटने की ग़र्ज़ से ध्यानी ने उसे बताना शुरू किया-‘क्योंकि मैं जान चुका हूं।‘
‘आप क्या जान चुके हैं ?‘-भोली ने बड़े भोलेपन से पूछा।
‘जो तू नहीं जानती।‘-ध्यानी ने फिर बताया।
‘मैं क्या नहीं जानती स्वामी।‘
‘शाश्वत सत्य, विधि का विधान और प्रकृति का नियम। इनमें से तू कुछ भी नहीं जानती।‘
‘आप बताएंगे तो मैं भी जान ही जाऊंगी स्वामी।‘
‘तो सुन। जो कुछ है सब एक ब्रह्म ही है। सारी सृष्टि में वही व्याप रहा है, वही भास रहा है। यह अलग है वह अलग है, यह भला है वह बुरा है। यह सब मन का वहम और दिमाग़ का फ़ितूर है। हम यहां वही काट रहे हैं जो हमने पिछले जन्मों में किया है। यहां जो भी हुआ अच्छा हुआ और जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। सब कुछ प्रारब्ध और संचित कर्मों का फल है जो भोगे बिना क्षीण नहीं हो सकता।‘-ध्यानी ने ज्ञान के मोती अपनी पत्नी पर लुटाने शुरू कर दिए।
‘स्वामी क्या कर्मों के फल से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है ?‘
‘है क्यों नहीं लेकिन जो उपाय है, उसे करना हरेक के बस में नहीं है। कर्म करते समय उसमें लिप्त न होओ और अपने आस-पास की घटनाओं को भी मात्र साक्षी भाव से देखो। अपने अहं को शून्य कर लो, मानो कि तुम हो ही नहीं। अपने मन को हरेक बंधन और हरेक भाव से मुक्त कर लो तो फिर कर्मों के फल से ही नहीं जन्म-मरण के चक्र से भी मुक्ति मिल जाएगी।‘-ध्यानी ने अपनी पत्नी को बताया और अभी वह कुछ और भी बताने जा रहा था कि अंधेरे में से एक-एक करके 5 हट्टे-कट्टे बदमाश अचानक ही प्रकट हो गए। उनके चेहरे भी ठीक से नज़र नहीं आ रहे थे।
‘दर्शन नाम है मेरा, दर्शन, समझा क्या ? यहां अपना राज चलता है।‘-एक ग़ुंडे ने अपना चाक़ू ध्यानी की गर्दन पर रखकर उसे डराना चाहा लेकिन ध्यानी की आंखों में डर का कोई भाव न आया। वास्तव में ही वह सिद्धि पा चुका था।
‘तू यहीं रूक।‘-ग़ुंडे ने उससे कहा और उसके चारों तरफ़ अपने चाक़ू से एक गोल घेरा खींच दिया।
‘ख़बरदार, जो इस घेरे से अपना पैर बाहर निकाला तो ...।‘-ग़ुंडे ने उसे धमकाया लेकिन वह साक्षी भाव से सारी घटना को देखता रहा और सोचता रहा कि जो भी हो रहा है अच्छे के लिए ही हो रहा है। वह वहीं खड़ा रहा और फिर पांचों ग़ुंडों ने उसकी पत्नी को वहीं दबोच लिया, बिल्कुल उसके सामने ही। उसकी पत्नी चिल्लाई, रोई और गिड़गिड़ाई लेकिन उन ग़ुंडों को उस पर कोई तरस न आया और न ही ध्यानी ने बदमाशों का विरोध किया। ज्ञानियों के रहते जो हश्र भारत का हुआ, वही सत्या का भी हुआ, ध्यानी के सामने ही। एक-एक मिनट उसे एक-एक सदी जैसा लग रहा था और घंटे भर बाद जब पांचों ने उसे छोड़ा तो उसे ऐसा लगा जैसे कि उसे पांच हज़ार साल बीत चुके हों। रोते-सिसकते हुए उसने अपने बाल और अपने कपड़े दुरूस्त किए और फिर लड़खड़ाते हुए वह एक पेड़ का सहारा लेकर खड़ी हो गई। तभी एक ग़ुंडे ने सत्या के ज़ेवर उतारने शूरू कर दिए।
‘नहीं उसके ज़ेवर मत लूटो बेवक़ूफ़।‘-दर्शन ने उसके सिर पर चपत जमा कर कहा।
‘क्यों उस्ताद ?‘-उसके चमचे ने पूछा।
‘ज़ेवर औरत की जान होती है मूरख। उसके बिना वह मर जाएगी।‘-उसने राज़ की बात बताई।
‘आप कितने दयालु हैं उस्ताद ! जय हो।‘-चेला नारा लगाते हुए पीछे हट गया और एक-एक करके वे पांचों फिर अंधेरे में ही समा गए।
उनके जाने के बाद सत्या दौड़कर ध्यानी से लिपट गई और दहाड़ें मार मारकर रोने लगी। अचानक ही ध्यानी ठहाके लगाकर हंसने लगा। वहां अजीब मंज़र था, पत्नी बुरी तरह रो रही थी और उसका पति बेतहाशा हंसे जा रहा था। ध्यानी इसी हाल में अपनी पत्नी को सहारा देकर बाग़ से बाहर ले आया।
रास्ते में जूस की दुकान नज़र आई तो ध्यानी उस पर रूक गया। यह दुकान अल्बर्ट पिंटो की थी। ध्यानी ने अल्बर्ट को जूस बनाने के लिए कहा, तब तक सत्या भी कुछ आपे में आ गई थी। उसे हैरत थी कि उसके पति ने उसे बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया और फिर जब वह रो रही थी तब भी वह हंसे जा रहा था। आखिर उसने पूछ ही लिया-‘आप इतना हंस क्यों रहे थे ?‘
‘मैंने, अकेले ने पांच-पांच ग़ुंडों को मूरख बना दिया। बड़ा घमंड दिखा रहे थे अपनी ताक़त का लेकिन उन्हें पता भी नहीं चला।‘-ध्यानी ने अपने हुनर की तारीफ़ की।
‘आपने ग़ुडों को कब और कैसे मूरख बना दिया ?‘-सत्या हैरान थी।
‘सत्या ! तुम्हें याद है कि दर्शन ने मुझे धमकी दी थी कि मैं घेरे से पैर बिल्कुल भी बाहर न निकालूं ?‘-ध्यानी ने पूछा।
‘हां, उसने कहा तो था।‘
‘बस, जब वे सारे तुम्हारे पास थे तो मैंने चुपके-चुपके कई बार अपना पैर घेरे से बाहर निकाला था और उन मूरखों को कुछ भी पता न चला। मैं इसीलिए हंस रहा था।‘-ध्यानी ने बताया और सत्या ने सुनकर अपना माथा पीट लिया।
अल्बर्ट पिंटो भी ज़्यादा दूर नहीं था। सत्या का हाल देखकर अंदाज़ा तो उसे भी हो गया था कि उस पर क्या बीती होगी लेकिन अब उसने सब कुछ सुन भी लिया था और उसके दिमाग़ की नसों में तनाव और ग़ुस्सा समाने लगा। ध्यानी विजयी मुस्कान के साथ जूस पीने लगा और अल्बर्ट पिंटो को भरपूर ग़ुस्सा आने लगा।     (...जारी)
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इस कहानी की पृष्ठभूमि जानने के लिए देखें :

उसे हंसी आ रही है और मुझे रोना / यहाँ  देखिए एक से एक नमूना

Saturday, January 29, 2011

मेरे जितने विरोधी हैं , उनमें से कोई एक भी इस कलाम को हल करने की ताक़त नहीं रखता The challenge

कलाम ए हाली
दर्दे दिल को दवा से क्या मतलब
कीमिया को तिला से क्या मतलब

चश्मा ए ज़िंदगी है ज़िक्रे जमील
ख़िज़्रो आबे बक़ा से क्या मतलब

बादशाही है नफ़्स की तस्ख़ीर
ज़िल्ले बाले हुमा से क्या मतलब

गरचे है रिन्द दामने आलूदा
हमको चूनो चरा से क्या मतलब

जो करेंगे भरेंगे खुद वाइज़
तुमको हमारी ख़ता से क्या मतलब

काम है मरदुमी से इंसां की
ज़ोहोदो इत्क़ा से क्या मतलब

नकहते मै पे जो ग़श हैं ‘हाली‘
उनको दुर्दो सफ़ा से क्या मतलब


यह कलाम हमें जनाब हकीम ज़मीरूद्दीन अहमद सलीम तुर्क मावराउन्नहरी साहब ने बतारीख़ 24 जनवरी 2011 को सुनाया तो हमने फ़ौरन उनसे इसे अपनी डायरी में तहरीर करवा लिया और अब आपके सामने बग़र्ज़े इम्तेहान पेश है। मेरे जितने विरोधी मेरी समझ पर अक्सर सवाल खड़े करते हैं। उनमें से कोई एक भी इस कलाम को हल करने की ताक़त नहीं रखता। अगर कोई रखता है तो वह सामने आए।
जो मेरा विरोधी नहीं है, वह आराम से इसका लुत्फ़ ले। हर चीज़ समझ आना ज़रूरी भी नहीं है। कुछ चीज़ें रहस्यमय रहें तो अपना आकर्षण बनाए रखती हैं।
इस कलाम को हल करने के लिए मैं कुछ दिन बाद खुद किसी उर्दू दां ब्लागर से दरख्वास्त करूंगा। तब तक आप सब्र रखें और बेवजह मेरा विरोध करने वालों के ज्ञान की हक़ीक़त देखें।
ख़ास तौर पर डा. श्याम गुप्ता जी के इल्मो-फ़ज़्ल को देख लें क्योंकि वे कहते हैं कि उन्हें
पता है। शायरी की समझ का दावा भी वे बेमौक़ा किया करते हैं। 
अब मौक़ा है, अब वे सामने नहीं आएंगे, ऐसा मुझे यक़ीन है।
पहाड़ यहां क़ायम कर दिया गया है, देखें कौन इसकी चोटी पर अपना झंडा फहराने में कामयाब होता है ?

Friday, January 28, 2011

हमारे खेत में सरसों आज भी उगती है The gift

 वंदना गुप्ता जी के ब्लाग पर एक दिन जाना हुआ तो उनकी एक सुंदर रचना पर नज़र पड़ी, जिसमें वे पूछ रही थीं कि अब खेत में सरसों कहाँ उगती है ?
हमने कहा कि ‘हमारे खेत में सरसों आज भी उगती है . मैं आप को जल्दी ही सरसों का फोटो भेंट करूँगा .'
तब से जब भी सरसों के खूबसूरत फूलों पर, उसकी लहलहाती फ़सल पर नज़र पड़ती थी तो दिल चाहता था कि उन्हें यह हरा-पीला मंज़र दिखा दें लेकिन उस मंज़र को क़ैद कैमरे में कौन करे ?
आज इत्तेफ़ाक़ से हम भी थे, सरसों के फूल भी थे और मंज़र क़ैद करने वाला भी आ पहुंचा। उत्तर प्रदेश पुलिस में सेवा दे रहे ये साहब मेरे मित्र तो नहीं हैं लेकिन मिलते अक्सर रहते हैं। आज वे सम्मन तामील की ड्यूटी पर थे। अपने इलाक़े के गश्त पर थे। मैंने उनसे चंद फ़ोटो लेने की इल्तेजा की और वे राज़ी हो गए। उनकी मदद से सरसों के ये फूल अव्वलन वंदना जी को भेंट करता हूं और सानियन अपने सभी पाठकों को।
वंदना जी ! सरसों में एक रंग पीला नज़र आ रहा है और एक रंग हरा। पीला रंग क्षमा का प्रतीक है और हरा रंग समृद्धि का। यह फ़ोटो मैं आपको भेंट करते हुए अपने मालिक से दुआ करता हूं कि वह आपकी तमाम ख़ताओं को क्षमा करे, आपको हिदायत दे और आपके दिल को भी क्षमा से भर दे जैसे कि उसने इस धरती को सरसों के पीले फूलों से भर दिया है। वह मालिक आपके जीवन को हर तरह से समृद्धिशाली बनाए जैसे कि उसने इस ज़मीन को हरियाली से ढक दिया है। आपके लिए भी ऐसा ही हो और उनके लिए भी जो मेरा ब्लाग पढ़ते हैं और उनके लिए भी जो मेरा ब्लाग नहीं पढ़ते।
इस नज़ारे से लुत्फ़अंदोज़ होने के बाद इस लज़्ज़त को इसकी तकमील तक पहुंचाने के लिए हम आपको पढ़वाते हैं वंदना जी की सुंदर रचना, उनके शुक्रिया के साथ।

 अब खेत में सरसों कहाँ उगती है ?
यादों के लकवे पहले ही उजाड़ देते हैं

अब भंवर नदिया में कहाँ पड़ते हैं ?
अब तो पक्के घड़े भी डूबा देते हैं

हम वंदना जी से दरख्वास्त करेंगे कि वे हमारे प्यारे ब्लाग ‘प्यारी मां‘ में एक लेखिका के तौर पर जुडें और मां के बारे में कुछ सुंदर रचनाएं हिंदी पाठकों को दें। हम उनकी रचनाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे।
मेरी ईमेल आईडी है- eshvani@gmail.com
सरसों के खूबसूरत फूल
नीले आसमान के नीचे पीले फूल सरसों के
धरती मां धानी चुनर ओढ़े हुए
फ़ोटोकार परिचित, उ.प्र.पु.

Tuesday, January 25, 2011

चाँद जागता रहा, रात हुई माधुरी Moon on the bed

चाँद जागता रहा, रात हुई माधुरी







धूप फागुनी खिली
बयार बसन्ती चली,
सरसों के रंग में
मधुमाती गंध मिली.

मीत के मन प्रीत जगे
सतरंगी गीत उगे ,
धरती को मदिर कर
महुए  हैं  रतजगे.

अंग अंग दहक रहे
पोर पोर कसक रहे,
पिय से मिलने को
रोम रोम लहक रहे.

अधर दबाये हुए
पुलक रही है बावरी,
चाँद जागता रहा
रात हुई माधुरी. 

@ डाक्टर पवन कुमार मिश्रा जी ! 'वाह' शब्द उस चीज़ के लिए बोला जाता है जो कि काबिले तारीफ़ होती है.
'वाह वाह' का मतलब है कि चाएज़ निहायत ही उम्दा है .लेकिन जिस  चीज़ कि तारीफ़ के लिए 'वाह वाह'
लफ्ज़ भी छोटा पड़ जाये और मन में उभरने वाले अहसासात को ज़ाहिर करने  के लिए  कोई लफ़्ज़ न मिले तब उस रचना की अज़्मत को और उस रचनाकार की महानता को सलाम करने के लिए कोई चीज़ भेंट दी जाती है . सबसे बड़ी भेंट है जीवन का एक अंश किसी को देना , अपना समय दे देना , जो कि एक प्रशंसक देता है अपने प्रिय कलाकार को . जीवन का अर्थ है समय  और धन प्राप्ति में भी समय ही खपाना  पड़ता  है तब कुछ मुद्रा हाथ आती है . मूल्य धन का नहीं है . मूल्य है समय का  जो कि मुद्रा में रूपांतरित हो जाता है . किसी विचार का कोई मूल्य नहीं है . मूल्य उस भाव का है जो कि एक रचनाकार अपनी रचना में प्रकट करता है , मूल्य उस भाव का है जो उसका प्रशंसक उसे भेंट करते समय अपने दिल में रखता है . मूल्य उस प्रेम का है जो रचनाकार और उसके प्रशंसकों के दरमियान होता है .
आपकी यह कविता ब्लाग जगत की ही नहीं बल्कि हिंदी साहित्य की भी  एक अनुपम कृति है . इसने मुझे अन्दर तक अभिभूत कर दिया है . अपने जज़्बात को आप पर ज़ाहिर करने कि ख़ातिर एक छोटी सी भेंट आपको प्रेषित है , उसे स्वीकार करके आप मुझे शुक्रिया का मौक़ा दें . इस अनुपम रचना को मैं अपने ब्लाग 'मन की दुनिया' पर पेश कर रहा हूँ .
धन्यवाद.

http://pachhuapawan.blogspot.com/2011/01/blog-post_20.html