Wednesday, October 19, 2011

जीवन की सार्थकता

एक राजा काफी वृद्ध और बीमार हो चला था। उसका जीवन दवाओं के सहारे ही चल रहा था। इस दौरान एक ज्योतिषी उसके पास आया और उसने कहा कि राजा का जीवन बस एक माह शेष है। इससे राजा और चिंतित हो गया। उसकी बीमारी और बढ़ गई। उन्हीं दिनों एक संत राजा को देखने आए। राजा ने उन्हें सारी बात बताई तो वे हंसकर बोले, 'आप तो अमर हैं।' इस पर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ। उसने संत से कहा, 'मेरा शरीर तो जर्जर हो चुका है। यह कभी भी टूट सकता है फिर मैं अमर कैसे हो सकता हूं। कृपया विस्तार से समझाएं।'

यह सुनकर संत राजा को एक जुलाहे के यहां ले गए। संत ने जुलाहे से पूछा, 'तुम कपड़ा तो बनाते हो पर बेचारी रूई के अस्तित्व को क्यों मिटाते हो?' इस पर जुलाहा बोला, 'यदि समय रहते रूई का उपयोग न किया जाए तो वायु और रेत इसको नष्ट कर देंगी। मैं तो इन्हें कपड़े में बदल इन्हें समाज के लिए उपयोगी बना रहा हूं।' अब संत ने राजा को समझाया, 'राजन्, दुनिया की हर वस्तु का एक न एक दिन मिटना तय है। 

इसलिए उनका सर्वोत्तम प्रयोग किया जाना चाहिए। इसी में उसकी सार्थकता है। शरीर का भी एक दिन नष्ट होना तय है। उसे स्थायी रूप से बचाया नहीं जा सकता। इसलिए उसके बचने की चिंता छोड़कर हमें उसका दूसरों के हित में प्रयोग करना चाहिए।' राजा संत का आशय समझ गया। वह मृत्यु की चिंता छोड़कर राजकाज में फिर से मन लगाने लगा। धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो गया।
संकलन: नरेंद्र वार्ष्णेय

साभार दैनिक नव भारत टाइम्स :  http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/10403461.cms