Friday, September 14, 2012

यह व्यंग्य नहीं है, कार्टून तो नहीं ही है -राजेन्द्र धोड़पकर

जब 25 साल पहले कार्टून बनाना शुरू किया था, तब नहीं सोचा था कि यह इतना संगीन मामला है। ममता बनर्जी ने एक कार्टून को सिर्फ ई-मेल पर फॉरवर्ड करने वाले को किसी महिला की इज्जत पर हमला करने के आरोप में जेल भेज दिया। एक कार्टूनिस्ट नरेंद्र मोदी का कार्टून बनाने के लिए जेल भेज दिया गया। एक कार्टूनिस्ट पर देशद्रोह का इल्जाम लगाकर जेल में डाल दिया गया। अब भी भारतीय दंड संहिता में ढेर सारी धाराएं बची हुई हैं और कार्टूनिस्टों की तादाद उतनी नहीं है। हो सकता है कि एक-एक कार्टूनिस्ट पर 20-20 धाराएं लगा दी जाएं या व्यंग्य के दूसरे क्षेत्रों के लोगों का नंबर लग जाए। अचरज नहीं कि किसी व्यंग्यकार पर 302 यानी हत्या का मामला दर्ज हो जाए। किसी पर डकैती का केस हो जाए। सोच रहा हूं कि अखबार में बाकायदा विज्ञापन छपवा दूं कि मैं हास्य-व्यंग्य से कोई ताल्लुक आइंदा नहीं रख रहा हूं और अपने पिछले तमाम व्यंग्य लेखों या कार्टूनों को भी अमान्य करता हूं। जिन्हें भी भारतीय दंड संहिता का रचनात्मक उपयोग करना है, वे अन्य कार्टूनिस्टों और व्यंग्यकारों पर विभिन्न धाराओं का इस्तेमाल करें।
कई लोग हैं, जिनकी महत्वाकांक्षा व्यंग्यकार कहलाने की है। उनकी जबर्दस्त लगन के बावजूद इस मिशन में वे जरा-सा चूक जाते हैं, उनकी कृतियां हास्यास्पद हो जाती हैं, हास्यजनक नहीं हो पातीं। मैं जेल भिजवाने के इच्छुक लोगों से आग्रह करता हूं कि इन्हें सहर्ष पकड़कर ले जाएं। इससे दो फायदे होंगे, जेल जाने से वे प्रमाणित व्यंग्यकार हो जाएंगे और लोग उनके हास्यास्पद व्यंग्य पढ़ने के कष्ट से वंचित हो जाएंगे। यही बात कुछ कार्टूनिस्टों के बारे में भी सही है। और एक तीसरा फायदा यह होगा कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इन्हें छुड़वाने के लिए मुहिम चलाने की जिम्मेदारी लेखकों, कलाकारों, नेताओं आदि के जिम्मे आ जाएगी, जिसमें कोई यह कह भी नहीं सकेगा कि ये बेहूदा व्यंग्य लिखते हैं या कार्टून बनाते हैं। मैंने अपनी ओर से भरसक कोशिश की है कि यह गंभीर लेख बने, इसलिए इसके व्यंग्य हो जाने का खतरा है। लेकिन मैं फिर यह कहना चाहता हूं कि यह व्यंग्य नहीं है।

Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-261689.html

Sunday, September 2, 2012

केयर ऑफ स्वात घाटी -मनीषा कुलश्रेष्ठ

''यह मेरी अस्मिता का प्रश्न है...विद्वता का अभिमान नहीं है मुझे। ज्ञान पर विश्वास अवश्य है। सब कहें तो कहें कि वाचकनु के ॠषिकुल में किसी स्त्री ने शास्त्रार्थ में भाग नहीं लिया फिर वह भी याज्ञवल्क्य जैसे महान ज्ञानी के समक्ष...समूचे राजदरबार के समक्ष राजा जनक के ब्रह्मयज्ञ में मैं ब्राह्मणत्व और आत्मा को लेकर कुछ प्रश्न उठाने का साहस बल्कि दुस्साहस करने जा रही हूँ । तुम मुझे रोको मत प्रिय। मेरे पिता ॠषि वाचकनु और मेरे बालसखा तुम ही ने तो मुझे तर्क का सामर्थ्य दिया है...तुम दोनों के बीच बैठ कर ही मैं ने यह सीखा है। मैं तुम्हारी वाग्दत्ता अवश्य हूँ मगर हूँ तो एक स्वतन्त्र इकाई। इस चराचर विश्व में विद्वजनों के प्रतिपादित नियमों के विपरीत सोचने और प्रश्न करने या खण्डन करने का तर्क मैंने अर्जित कर लिया है तो क्यों नहीं अब...याज्ञवल्क्य के समक्ष ऐसा अवसर दुर्लभ होता है। नहीं तुम मुझे नहीं रोक सकते। तुम्हें मेरी मर्यादा की चिन्ता है नहजारों पुरुषों के समक्ष, नेत्र और मस्तक उठा कर प्रश्न उठाऊंगी...तो लो मैं ने डाल लिया दुशाला अपनी यौवनपुष्ट देह पर, कहो तो इस सुन्दर मुख पर भी हवनकुण्ड की राख मल लूं और कुरूप कर लूं। यह जान लो, तुम और पिता से भी कह दो कि मेरी यह देह मेरे ज्ञान और प्रतिभा की कारा नहीं बन सकती। नहीं बन सकती।''
तालियों की गडग़डाहट से थिएटर हॉल गूंज उठा। सुगन्धा हल्के - हल्के हांफते हुए ग्रीनरूम में चली आई। साथियों ने उसे घेर लिया, फुसफुसा कर बधाई देने लगे।
'' वाह सुगन्धा, पहली ही बार में झण्डे गाड दिए।''
'' क्या डॉयलॉग डिलीवरी थी। शानदार। दर्शक दम साधे बैठे हैं।''
'' क्या सच ?''
'' हाँ।''
गार्गी बनी सुगन्धा ने एक नजर शीशे पर डाली, विद्रोहिणी, विदूषी ॠषिकन्या के वेश में उसने अपनी देह को लम्बवत देखा। वह हल्का - हल्का कांप जरूर रही थी मगर मंच पर बोले संवादों का ओज अब भी देह से उत्सर्जित हो रहा था। राजा जनक के नौरत्नों में एक रत्न 'गार्गी'। शास्त्रार्थ में भाग लेने को उत्सुक गार्गी। और सुगन्धा? वह कौन है? उससे अपनी पहचान की डोर छूटने लगी थी।
उसने रंगीन दुशाला बदला और सफेद दुशाला सीने और कंधों पर लपेट लिया। जंघा तक लहराते हुए खुले बाल खींच कर पीछे जूडे में बांधेफूल बालों से निकाल फेंके। उसके चौडे सांवले माथे पर पीले वाटरकलर से मेकअप आर्टिस्ट निधि ने चन्दन का - सा त्रिपुण्ड उसके माथे पर रचा दिया। बीच में लाल बिन्दु। वह अपनी बारी आने तक बाकी के संवाद बुदबुदाते हुए दोहराने लगी।
''भूत, भविष्य और वर्तमान क्या है। ये काल क्या है और किस पर बुना गया है इस काल का ताना - बाना और बुने जाने की पुनरावृत्तियां किसमें ओत - प्रोत हैं? महात्मन, स्वर्ग के ऊपर क्या है और धरती के नीचे क्या है, इन दोनों के बीच क्या है? ये ब्रह्मलोक क्या हैयह कैसे रचा गया और कब विकसित हुआ?
''गार्गी इतने प्रश्न मत कर कि तेरा ही सर ही फट जाए। ''
याज्ञवल्क्य बना अनुज अपने आसन से उठ खडा हुआ और उसे लाल आंखों से घूरने लगा। वह डायलॉग भूलने को थी मगरउसने मन से दो पंक्तियां मन से बोलीं फिर शेष खुद ब खुद जुबान पर आ गईं।
''क्षमा करें, महाराज जनक, मेरा उद्देश्य मेरे प्रश्न व्यर्थ नहीं हैं।'' सुगन्धा ने प्रश्नवाचक दृष्टि राजा जनक के सिंहासन की ओर डाली। राजा जनक ने दृष्टि झुका ली।
''महात्मन याज्ञवल्क्य, आप तो मुझे क्षमा करें। जैसे वैदेह या काशी के किसी योद्धा के किशोर पुत्र अपने ढीली डोर वाले धनुष पर भी बाण चढा कर युद्ध के लिए किसी को भी ललकार सकते हैं। इन प्रश्नों के पीछे वैसा ही बालसुलभ साहस ही समझ लें मगर उत्तर अवश्य दें। बस मेरे इन अंतिम दो प्रश्नों के उत्तर दें, मुझे पता है, आपके पास इन प्रश्नों के सटीक उत्तर हैं। देखिए न, ये सहस्त्र कामधेनुएं बडी बडी आँखों में प्रतीक्षा लिए आपके आश्रम के पवित्र वातवरण में हांकी जाने को उत्सुक हैं।'' कह कर ॠषि वाचकनु की पुत्री गार्गी शांत हो गई और अपने आसन से उठ कर एक गाय के भोले मुख को सहलाने लगी। तभी
याज्ञवल्क्य का स्वर गूंजा, ''तो फिर, सुन ओ गार्गी, ध्यान से सुन।''
गार्गी बनी सुगन्धा ने कुछ सुना कि नहीं न जाने कब नाटक खत्म हुआ उसे पता नहीं चला वह तो मंचसज्जा, अभिनय, परदों के गिरते - उठते क्रम, प्रकाश - संगीत के महीन जाल के बीच सुन्न खडी थी। तालियां उसे बार - बार वर्तमान में लाने के प्रयास में थीं। उसके सैलफोन पर श्यामल का संदेश जगमग कर रहा था। '' शानदार! तुम पर गर्व है, गार्गी।''
मेकअप उतारते हुए उसका ध्यान चेहरे की बांई तरफ गया। बांई आंख के नीचे एक खंरोच थी और उसके चारों तरफ एक काला और जामुनी निशान बना था। उसका शरीर ढीला हो गया। वह ओज जाता रहा...बेचारगी घर करती रही। गर्व से भरी आंखों में पानी भर आया। वह खुद को घसीटते हुए कपडे बदलने के लिए ड्रेसिंगरूम में ले गई। बाहर आते ही सहकलाकारों ने उसे घेर लिया, '' सुगन्धा, पहली ही परफॉरमेन्स में ये जलवे!''
''श्यामल को देखा होतावो किस कदर गर्व से झूम रहे थे। कोई उनसे कह रहा था कि 'वेदों का युग जीवन्त हो गया था और दर्शकों को अपनी दुनिया में लौटने में समय लगा।''
''सच?''
''हां।''
'' चलो सफल रहा पहला ही शो...कल अखबार भरे होंगे।''
'' भैय्ये, गए वो जमाने जब नाटकों की सफलता राजनीति और फिल्मों के साथ स्कोर कर पाती थी, रिव्यू आते थे। किसी कोने में छोटी खबर ही छप जाए तो गनीमत समझना।''
'' पागल है, यह श्यामल सर का नाटक है,अननोटिस्ड नहीं जाने वाला।''
सबका बाहर निकल कर निरूलाज में डिनर करने का कार्यक्रम पहले से तय था। श्यामल अपने महत्वपूर्ण मेहमानों और पत्रकारों के साथ बाहर व्यस्त थे। उसे अपनी हदें पता थीं, चुपचाप उसने बैग उठाया और सबसे विदा ली।
'' ये क्या यार!''
'' नहीं हो पाऐगा अनुज। छोटा वाला शाम के बाद नहीं रहता मेरे बिनाफिर मेरे पति भी आज बहुत व्यस्त हैं। छोडो न फिर कभी। बल्कि तुम सब लोग कभी सुबह घर आओ ब्रेकफास्ट पर, मैं तुम सब को खिलाउंगी पिजा या थाई फूड।''
'' हां, जल्दी ही तुम्हारे घर टपक पडेंग़े। बिना प्लान..''
'' बाय।''
''गुडनाइट।''
'' सुनो निधि, श्यामल को कहना, मैं जल्दी में थी। कल फोन पर बात करूंगी।''
थिएटर के गलियारों से निकल कर वह बाहर आई। श्रीराम सेन्टर के खुले छोटे लॉन में आकर उसने गहरी सांस ली, बालों को क्लचर में बांधा और दो सीढी उतर कर बस के इंतजार में बाईं तरफ बने एक टीनशेड में खडी हो गयी। मौसम तो सुबह ही से मुंह बना ही रहा था, अंधेरे के गहराते ही बरसात भी शुरू हो गई। टिन पर टपकती मोटी बूंदों ने तालियों की याद दिला दी। क्या उसे ही लेकर थीं वो तालियां। प्रशंसा में बजती तालियां? या मजाक उडाती तालियां। उसका चेहरे की सूजन पर ध्यान गया।
''बहुत दिनों से देख रहा हूँ। घर से खूंटा छुडा कर भागने लगी हो। बच्चों की तरफ ध्यान कम रहने लगा है। मान्या का रिपोर्ट कार्ड देखा? कैसे उसकी पोजिशन पहली से पांचवीं हो गई है हाफइयरली में।''
''जानते हो तुम, उसे चिकनपॉक्स हुए थे।''
'' तब भी तुम घर में कहां बैठी थीं।''
''बहस शुरू मत करो।''
''बहस की बात ही नहीं। बहस की गुंजाइश मैं नहीं छोडता। बस बन्द करो ये सब और घर में ठहरो थोडा। बच्चों को देखो। जब मेरे ऑफिस में बहुत व्यस्तता हो, तभी तुम्हारा कोई न कोई शौक मुंह उचकाने लगता है। पहले फ्रेन्च सीखूंगी। फिर ये थियेटर।''
''विनय, आज मूड्स मत दिखाना, आज मेरा पहला स्टेज परफॉरमेन्स है।''
'' देखो, नन्नू को बुखार है, मुझे रात देर होगी, आज तुम कहीं नहीं जा रही हो।''
'' मान्या है न, फिर मैं ने उसे क्रोसीन सिरप दे दिया है, फिलहाल वह सो रहा है। बस शाम छह से नौ तक की बात है।''
'' नहीं।''
'' प्लीज। नाटक की घोषणा हो गयी है। टिकट बिक चुके हैं। मेरा लीडिंग रोल है। इसे कोई और नहीं कर पाऐगा।विनय प्लीज।''
'' स्साले, अच्छा घन्टों बाहर डोलने का बहाना ढूंढ लिया है।''
'' तो क्या करुं? बच्चे स्कूल चले जाते हैं, तुम दफ्तर सुबह आठ से शाम आठ मैं क्या करूं? घर और बच्चे अकेले ने छूटें इसीलिए हमने यहां रिहर्सल कीं।''
'' ठीक है वो दिन - दिन की बात थी। अब रातों को भी...रात को इस शहर में बाहर भेज दूं तुम्हें...तुम्हें न सही मुझे तो तुम्हारी सुरक्षा का ख्याल है।'' वह नर्म पडा।
'' तो तुम साथ चलो।'' उसने भी कोशिश की।
'' बीवी की नौटंकी देखने? हिश्ट।'' वह घने तिरस्कार के साथ बोला। सुगन्धा चुप रही अगले कुछ मिनट, वह शीशे में देखकर टाई उतारता रहा।
''आज मेरा डिनर नहीं बनेगा। एक क्लाइंट के साथ डिनर है।बल्कि मैं चाहता हूँ कि तुम साथ चलो।''
'' क्यों अच्छा इंप्रेशन पडता है, जवान बीवी का?'' कह कर वह जबान भी नहीं काट पाई थी कि_
'' बकवास....बकवास करती है।'' कह कर विनय ने बांह मरोड दी।
'' मैं बकवास कर रही हूँ नौटंकी और थिएटर में फर्क करने की तमीज़ तो सीख लो।'' उसने बांह छुडा कर उसे धकिया दिया।
'' सीख ली...मेरी मौजूदगी तो मौजूदगी गैरमौजूदगी में भी तेरे नौटंकीबाज़ यार यहां मजमा लगाए तो रहते हैं। वो तेरा बंगालीबाबू श्यामल। उसकी फेमिनिस्ट बीवी अनामा जो तमाम मीडिया में फेमिनिज्म का झण्डा लेकर घूमती फिरती है। तू मत करना कभी ये कोशिश, वरना उसी झण्डे का डण्डा..... ''
'' तुमसे मुंह लगना बेकार है, बेटी के सामने भी अपना ये गन्दा मुंह खोलने से बाज नहीं आओगे...मैं जा रही हूँ ।''
'' तू कहीं नहीं जा रही। चुपचाप घर में बैठ।'' कह कर उसने उसे बिस्तर पर धकिया दिया। वह उठी और बैग उठा कर चलने लगी _ '' तू भी रोक कर देख ले।''
उसने तमतमा कर उसके चेहरे पर घूंसा मार दिया। अनामिका में पहनी शादी की अंगूठी की एक खरोंच आंख के पास उभर आई, खंरोंच के आस - पास तुरन्त सूजन आ गई। वह चेहरा सहलाती हुई तेजी से फ्लैट से उतर आई और गेट के बाहर आकर खडी हो गई। वह खिडक़ी में से चिल्लाया _
'' बहुत अकड क़े जा रही है ना? फिर सोच लेना, लौट कर घर आने की जरूरत नहीं है।''
''...''
'' देख जुर्रत मत करना लौटने की।''
एक टैक्सी वाला रुका, वह पीछे आती आवाज उपेक्षित कर टैक्सी में चढ ग़ई -'' मैट्रो स्टेशन।''
थिएटर पहुंची तो, वक्त अभी बाकी था। लडाई नहीं हुई होती तो बच्चों को को कुछ खिला कर, बहला कर आती। हडबडाहट में सब रह गया। यूं तो नौकरानी आऐगी ही, रोटी - सब्जी बनेगी। बच्चे बेमन से खाएंगे। कुछ उनकी पसंद का बना आती, बर्गर या पास्ता।
वह मंच की तरफ बढ आई वहां हल्का अंधेरा था। श्यामल मंच सज्जा और में तल्लीन था कुछ लडक़ों के साथ। मंच सज्जा अधुनातन और कलात्मक तरीके से की गई थी। बहुरंगी प्रकाश का प्रयोग ज्यादा था, बजाय चीजों और परदों और पेन्टिंगों के। कंप्यूटर की सहायता से 'वर्चुअल इमेजेज' यानि आभासी छायाओं का इस्तेमाल खूबसूरत भी है और कम खर्चीला भी। बहुरंगी प्रकाश के बीच गुरूकुल की सुबह का दृश्य बहुत सुन्दर बन पडा है, हिलते पेडों और कुटियों की महज छायाएं। नेपथ्य से गूंजते मंत्र और पंछियों की काकली के स्वर ध्वनि प्रभाव की तरह इस्तेमाल किए जाने हैं। मिथिला की आध्यात्म सभा के दृश्य के लिए हवा में डोलते सुनहरे परदों का इस्तेमाल किया जाना था, इसके लिए पीछे एक स्क्रीन पर नवग्रह चलायमान थे। एक ओर सहस्त्रों गायों की प्रतिच्छाया पडनी थी। एक कोने में एक बडा यज्ञकुण्ड रखना था जिसमें से निकलती अग्नि को उडती नारंगी झालरों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाना था। एक सचमुच की सजी हुई गाय बाकि आभासी गायों का प्रतिनिधित्व करने को लाई गई थी। एक नाटक खासी तैयारी मांगता है। बहुत सा श्रम। पर्दे के पीछे का काम कम नहीं होता! सुगन्धा हैरान थी और शाम की क्लेश का प्रभाव उसके मन से जाता रहा। श्यामल की गंभीरता के पीछे इतना बडा कलाकार कहा छिपा रहता है? श्यामल, जिसके निकट रह कर उसने अपने व्यक्तित्व की थाह जानी है। श्यामल, जिसके पास बने रहना उसे सुख देता है।
श्यामल, जिससे वह आठ महीने पहले मिली थी, बडे भाई अनुराग के साथ। वो दोनों कॉलेज के मित्र रहे हैं। उस दिन श्यामल के एक बेहद लोकप्रिय नाटक का सौवां शो था। हफ्तों तक उस नाटक का नशा रहा था। तब उसने सोचा तक नहीं था कि एक दिन वह इसी लोकप्रिय नाटयनिर्देशक के निर्देशन में मंच पर उपस्थित होगी।
एक दिन, न जाने किस बहके हुए फुरसतिया क्षण में उस ने श्यामल को फोन किया था।
'' क्या मैं आपके किसी नाटक में एक पेड या खम्भे का रोल पा सकती हूँ?''
''नहीं, वहां भी लम्बी कतार है। परदा गिराने और उठाने वाले की जगह जरूर है,कर लोगी?''
'' हां, आपके नाटक में उपस्थित रहने के लिए कुछ भी करूंगी।''
''तुम्हारी क्वालीफिकेशन क्या है?''
'' एम एससी बॉटनी।''
'' मार डाला।''
'' क्यों?''
'' कलाओं से कहीं कोई दूर का वास्ता?''
'' न।''
''नाटक पढे?''
''नहीं।''
''देखे।''
''स्कूल में देखे। किए नहीं।''
'' गार्गी के बारे में सुना है?''
''कौन गार्गी?''
 '' पौराणिक पात्र?''
'' शायद हां, कभी स्कूल की किसी संस्कृत की किताब में या हिंदी के पाठ में...पर अब याद नहीं।''
'' नेट पर देखना और रिसर्च करके मुझे कल बताना। तुम मेरे साथ स्क्रिप्ट पर काम करोगी?''
'' मुझे स्टेज पर छोटी - सी उपस्थिति चाहिए थी। स्क्रिप्ट तो...! ''
'' स्टेज बाद की चीज है। नेपथ्य में काम करना सीखोगी तभी तो न मंच को समझोगी!''
''ठीक है।''
स्क्रिप्ट पर काम करने में दो महीने जाने कहाँ उडनछू हो गए। बहुत कुछ सीखा उसने श्यामल से। इस नाटक में गहरी रुचि जाग उठी। गार्गी के चरित्र ने उस पर असर डालना शुरू किया। स्क्रिप्ट देखकर श्यामल की पत्नी अनामा ने जब इस गैरपारंपरिक, कम ग्लैमरस रोल में रुचि लेने की जगह दूरदर्शन के चर्चित सीरियल में अपना समय देना ज्यादा पसंद किया तो श्यामल ने सुगन्धा में अपनी गार्गी को खोजा। लम्बे बाल, चौडा माथा, चौडा जबडा, कम झपकने वाली जिज्ञासु आंखें, गङ्ढे वाली ठोडी और जिद्दी व्यवहार जताती नाक। हल्की भारी आवाज...लम्बी और पुष्ट देह।
'' मैं कर पाऊंगी?''
''कर लोगी।''एक विश्वास था निर्देशक श्यामल का जिसका निर्वाह करना था सुगन्धा को।
वह जुट गई। दूध उफन रहा है, सुगन्धा रट रही है डायलॉग।
''याज्ञवल्क्य, बताओ तो जल के बारे में कहा जाता है कि उस में हर पदार्थ घुल मिल जाता है, तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है?''
''अच्छा आत्मन, फिर सच्चा ब्राह्मणत्व क्या है?''
साबुन के झाग से ढकी हुई देह को शीशे में देखती हुई वह... और शॉवर के साथ उसका एकालाप चलता जा रहा है, '' लो मैं ने डाल लिया दुशाला अपनी यौवनपुष्ट देह पर, कहो तो इस सुन्दर मुख पर भी हवनकुण्ड की राख मल लूं और कुरूप कर लूं। यह जान लो, तुम और पिता से भी कह दो कि मेरी यह देह मेरे ज्ञान और प्रतिभा की कारा नहीं बन सकती। नहीं बन सकती।''
वह मानो सपनों की किसी आसमानी दुनिया में रही थी पिछले कुछ महीने। आज समय आ गया था ज़मीन छूने का।
'' आ गई मेरी विदूषी गार्गी! राजा जनक के नौ रत्नों में से एक रत्न। वाचकनु ॠषि की पुत्री।''
'' वैसे श्यामल! मुझे शक है...''
'' बोलो न, मंच पर जाने से पहले अपने सारे शक दूर कर लो।''
' यही कि गार्गी का कोई मंगेतर था भी, कोई उसका बाल - सखा, ॠषि वाचकनु का शिष्य। जिसे आपत्ति होती कि गार्गी आध्यात्म सभा में अन्य आठ शास्त्रार्थ करने वाले ज्ञानियों के साथ जाए और याज्ञवल्क्य से सवाल करे! आपने स्क्रिप्ट में यह मिथक बुना है या यह सच है। वह सदा की बालब्रह्मचारिणी थी या बाद में अविवाहित रहने का प्रण लिया? नेट पर बालब्रह्मचारिणी होने का ही जिक़्र है। कई लोगों ने उसे याज्ञवल्क्य की पत्नी भी समझा है।''
''मिथक हो कि कल्पना...जो नाटक को पूर्णता व सार्थकता दे वही सही है। मुझे कहीं लगता है कि सुन्दर और युगप्रवर्तक गार्गी को प्रेमी या मित्रविहीन बना कर बृहदारण्यक उपनिषद में ज्यादती हुई है। उस युग की स्त्री टाईम और स्पेस को लेकर सवाल कर रही है! बडी बात है। वही सवाल जिनके अंत में उसने उत्तर चाहे थे, स्पेस और टाईम के बाहर क्या है? ब्रहान्ड। तो फिर पूछती है यह ब्रह्माण्ड किसके अधीन है जिसका गोल - मोल उत्तर याज्ञवल्क्य महाशय देते हैं जिनका लॉजिक मैं नहीं समझ पाता।''
''ऐसा क्यों?''
''वही कि कोई अविनाशी तत्व। अक्षरत्व। जिसके अनुसासन व प्रशासन में सब ओत - प्रोत है। ऑल रबिश! समझती नहीं, प्रश्नों के उत्तर की जगह गार्गी को धमकी देने वाले याज्ञवल्क्य को निरूत्तर छोड क़र पुरुष जाति की हेठी करानी थी क्या? जबकि वे उत्तरविहीन हो चुके थे मगर हो सकता है कि क्षेपक की तरह आगे जोडा गया हो, या उनके खीजने पर गार्गी ने ही स्वयं वे उत्तर दिये हों। हो सकता है कि प्रेम या सम्मान के कारण गार्गी ने अंत में कहा हो कि 'याज्ञवल्क्य के पास हर प्रश्न का उत्तर है, चाहे वह धरती या ब्रह्मलोक से जुडा हो या अंतरिक्ष से। ब्राह्मणत्व या पुरुष की इयत्ता से जुडे प्रश्न हों...वे ब्रह्मर्षि हैं। वे इन सहस्त्रों गायों के अधिकारी हैं।' मगर फिर स्त्री की इयत्ता? यह प्रश्न क्यों नहीं किया गार्गी ने और मेरी विवशता देखो कि मैं गार्गी के सम्मान में इस उपनिषद के किसी तथ्य को कल्पना से बदल नहीं सकता, अन्दाजा लगा कर भी नहीं...पता है, लोग थियेटर फूंक देंगे। गार्गी की मां, बालसखा और संगी साथियों तक का हल्का - सा जिक़्र कहीं नहीं है।''
'' हाँ।''
''अपनी परंपरा की विरासत इतनी समृद्ध है, मगर हमारे पास सही तथ्यों के मामले में दरिद्रता ही दरिद्रता है। विवश कर देने वाली दरिद्रता। उस समय के ब्राह्मणों ने सदियों तक अपने लाभ के लिए बहुत कुछ नष्ट हो जाने दिया और बहुत कुछ क्षेपकों की तरह हमारे महान ग्रन्थों में जोड दिया।''
सुगन्धा चकित हो श्यामल की पीडा को देखने लगी तो वह संभला।
'' खैर, डायलॉग्स जहां - जहां भूलती थीं वहां सुधारा ? सुगन्धा कर तो लोगी न! खासी भीड होगी।''
'' हाँ, शायद। पता नहीं। डराइए मत।''
'' एक्सप्रेशन शार्प और ड्रामेटिक रखना। पौराणिक नाटक है। फिर दिन की रिहर्सल और रात में मंच की नकली रोशनी में फर्क होता है। तुम्हारे उच्चारणों पर तो पूरा कॉन्फीडेन्स है मुझे। वही तुम्हारी ताकत है। गुड लक, सुगन्धा। तुम ग्रीनरूम में चलो, मैं पहुंचता हूँ। निधि वहां है तुम्हारे कॉस्टयूम के साथ।''
कॉस्टयूम पौराणिक किस्म का था। कंचुकीनुमा ब्लाउज़, नाभिदर्शना साडी, सुनहरे दुशाले ने राहत दी। श्यामल कॉस्टयूम को लेकर बहुत सजग रहते हैं। वह बाल काढ रही थी कि श्यामल ग्रीन रूम में आए।
''निधि, सुगन्धा के ये बाल खुले रहेंगे पहले सीन में। दूसरे - तीसरे सीन में जब वह 'ब्रह्मचारिणी' रहने का प्रण लेती है, उसके बाद से यह जूडे में बंधे हुए रहेंगे। माथे पर चन्दन का त्रिपुण्ड रहेगा। यह सुनहरा दुशाला सफेद रंग के दुशाले से बदला जाऐगा। सुनो मुझे मेकअप एकदम सादा चाहिए मगर वेल डिफाइन। नेचुरल लिप्सटिक, गहरी आंखें।''
श्यामल कहते हुए कुछ हैरान सा सुगन्धा की तरफ बढा।
''सुगन्धा यह चेहरे पर क्या हुआ है? कल तक तो यह नहीं था। इतनी गहरी खरोंच और यह नीला निशान?''
'' बाथरूम में फिसल गई थी, नल से लग गई।'' उसने लगभग बुदबुदाते हुए कहा था। श्यामल अविश्वास के साथ उसे गौर से देखता रहा। वह चुप था मगर उसकी अनुभवी आंखें बोल रही थीं_
''पन्द्रह बरस हुए होंगे मुझे थिएटर करते हुए। तुम लोगों के पास अब बहाने भी खत्म हो चले हैं। मेरे नाटकों की गार्गियां, आम्रपालियां, वसंतसेनाएं, वावसदत्ताएं देवयानियां, शर्मिष्ठाएं...यूं ही चेहरे पर अपनों के विरोध के हिंसक निशान लेकर थिएटर आती रही हैं। बहाने भी अमूमन यही सब रहते हैं , मसलन बाथरूम में फिसल गई थी। बच्चे ने खिलौना कार से मार दिया गलती से। टैक्सी या बस के दरवाजे से टकरा गई। तुम पहली तो नहीं हो, सुगन्धा! ''
प्रत्यक्षत: वह इतना ही बोला और बाहर निकल गया, ''कोई बात नहीं, जाओ पहले बर्फ लगा कर सूजन दबा दो फिर कन्सीलर लगा कर, गहरा फाउण्डेशन लगा लेना।समय होने वाला है जल्दी करो।'' वह उसे ग्रीन रूम में शर्मिन्दा छोड ग़या था। उसे लगा वह सारे संवाद भूल जाऐगी। उसने अपने संवादों वाला पुलिन्दा निकाल लिया। बेमन से उन काले शब्दों को पढने लगी थी, जिनके अर्थ उन शब्दों के छोटे कलेवर में समाए नहीं समा रहे थे। खैर, चलो यह नाटक तो पूरा हुआ।
बस आने में देर लग रही थी। शेड में खडे लोग एक - एक कर टैक्सियां पकड रहे थे। वह भी एक टैक्सी की तरफ बढी।
''कहा जाना है, मैडम?''
उसके कानों में खिडक़ी से उछल कर किसी पत्थर की तरह पीठ पर पडी आवाज़ ग़ूंजी।
'' डोन्ट कम बैक होम। इस जुर्रत के साथ घर लौटने की जरूरत नहीं है।''
'' मैडम,बारिश तेज हो रही है कहाँ जाना है ?
''कहाँ?'' क्या वह भूल गई?
''गुरूकुल या वैदेह के दरबार से बाहर आओ, गार्गी। मंच और थिएटर के बाहर तुम्हारा एक घर है। वहाँ बच्चे हैं। विनय है। विनय डिनर पर बाहर गया होगा। बच्चों ने नौकरानी के हाथों खाना पता नहीं खाया होगा या टीवी देखते होंगे। मान्या का होमवर्क अधूरा होगा। नन्नू को बुखार है। इडियट, यह सब भूल कैसे सकती हो?
'' मैडम? किधर जाना है? ''
'' घर...ऑफकोर्स घर ही।''
'' घर किधर? पता है कोई?''
''हाँ, है।'' सुगन्धा टैक्सी में घुसते हुए बोली। ड्राइवर ने टैक्सी बढा दी। उसने सीट से सर टिका लिया। शीशे के बाहर की तेज होती बारिश धीरे - धीरे आंखों में होने लगी। उसने आंखें बन्द कीं तो दो बूंदे, पलक की कोरों पर आकर उलझ गईं। टपकने से पहले उसने उन्हें रुमाल में सोख लिया। मन ने कहा - ''मेरा पता क्या पूछते हो, मैं तो प्रज्ञा और गर्भाशय के बीच उलटी लटकी हूँ। प्रज्ञा आसमान छूना चाहती है, गर्भाशय धरती में जडें धंसाए हुए है। फिर भी, हाँ, है पता मेरा भी पता है। तुम सुनो, सब सुन लें।''
सुगन्धा बहुत धीमे होठों में बुदबुदाने लगी।
''मैं गार्गी, केयर ऑफ याज्ञवल्क्य। मैं दुश्चरित्र अहिल्या केयर ऑफ गौतम ॠषि। मैं भंवरी देवी, मैं रूप कंवर केयर ऑफ लोक पंचायत, केयर ऑफ ऑनर किलिंगकेयर ऑफ चेस्टिटी बैल्ट। पब में पीटी जाने वाली लडक़ी हूँ, केयर ऑफ शिवसेना। नाजनीन फरहदी हूँ केयर ऑफ तेहरान जेल। सरेआम कोडे ख़ाने वाली वो कमसिन लडक़ी...केयर ऑफ स्वात घाटी।''
Source : http://www.aparajita.org/read_more.php?id=818&position=1&day=7

Friday, August 24, 2012

चला गीदड़ शिकारी बनने Story for children

मूल-मंत्र/ विजय-राज चौहान


झींगा शेर तालाब के किनारे काँस के झुंडों के बीच में अपने भूखे बच्चों और पत्नी के साथ बैठा सूरज की मीठी धूप में ऊँघ रहा था। इस समय उसकी आँखें बंद थी और वह अपने सुनहरे दिनों के सपनों में खोया हुआ था उसे अपनी जवानी के उन दिनों की याद आ रही थी जब वह खूब शक्तिशाली था उन दिनों का भी क्या रंग था, क्या ताक़त थी, शरीर की चुस्ती और फुरती के आगे क्या मजाल थी कि कोई शिकार हाथों से निकल जाये। अगर उसे दिन में दो-तीन बार भी शिकार के पीछे दौड़ना पड़ता था तो वह तब भी नहीं थकता था। लेकिन अब उम्र का तक़ाज़ा था कि अब उसे एक शिकार मारने के लिए भी तालाब के किनारे कई-कई घंटे इंतज़ार करना पड़ता था, और कभी तो पूरा दिन भी कोई शिकार नहीं मिलता था और भूखों ही सो जाना पड़ता था। उसकी यह हालत बूढ़े हो जाने के कारण थी क्योंकि अब उसके शरीर की शक्ति अब क्षीण हो चुकी थी इसलिए वह अब तालाब के किनारे पानी पीने आए एक-आध कमज़ोर पशु को ही मार पता था और उसे उसी से ही अपने परिवार की भूख को शांत करना पड़ता था।
लेकिन आज सुबह से शाम होने को आयी, तो भी कोई शिकार दिखाई नहीं दिया था।
झींगा शेर की माँद से कुछ दूर पर ही शेरू नाम का एक गीदड़ भी अपनी पत्नी रानी और अपने दो बच्चों के साथ एक बिल में रहता था।
शेरू के परिवार का पेट भी काफ़ी हद तक झींगा शेर के शिकार के ऊपर ही निर्भर करता था क्योंकि जब झींगा किसी शिकार की मार डालता था तो शेरू का परिवार भी बची झूठन को कई दिनों तक खाता था।
लेकिन आज शेरू के परिवार का भी भूख के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था। लेकिन फिर भी वह अपने परिवार के साथ किसी शुभ घड़ी के इंतजार में, झींगे के ऊपर नज़रें गड़ाये बैठा था।
आखिर जब सूरज क्षितिज में छुपने जा रहा था तो शुभ घड़ी आ पहुँची और एक दरियाई घोड़ों का झुंड तालाब किनारे आ पहुँचा। झुंड को देखते ही दोनों परिवारों में खुशी ही लहर दौड़ गई, झींगे ने भी झुंड को देखते ही अपनी स्थिति को सँभाला और खड़ा होकर कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई ली। इसके बाद उसने हाथ पैरों को झटका और किसी पहलवान की तरह से आगे पीछे किया। इसके बाद उसने मूल-मन्त्र करने के लिए अपनी पत्नी को पास बुलाया जिससे झींगे के शरीर में एक उतेजना पैदा हो गई।
उसने अपनी पूछ को कमर पर मोड़ा और आँखें लाल कीं, फिर उसने अपनी पत्नी से पूछा-
- “देखो तो ज़रा मेरी पूँछ मुड़ कर पीठ पर आ गई है या नहीं?"
शेरनी ने कहा – “हाँ स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो।“
इसके बाद झींगे ने पूछा -
“मेरी आँखें कैसी लग रही हैं?"
शेरनी ने कहा – “स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मानो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो!"
झींगे ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उतेजित हो गया और उसने तूफ़ान की गति से दौड़ कर एक ही झटके में एक कमज़ोर से दिखाई देने वाले दरियाई घोड़े को मार गिराया जिसे वह खींचकर अपने झुंड में ले आया।
इसके बाद पूरे परिवार ने व्रत तोड़ा और खूब डट कर खाया और फिर पेट पर हाथ फिराते हुए अपनी माँद की तरफ़ चल पड़े।
झींगा शेर ने जब से शिकार किया तब से ही शेरू गीदड़ का परिवार भी उन पर आँखें गड़ाये बैठा था, झींगे का परिवार पत्तल से उठ कर चला तो शेरू झूठी पत्तल को साफ़ करने के लिए उसकी तरफ़ दौड़ा और वह भी अपने परिवार सहित अपनी भूख मिटाने में जुट गया।
परिवार के सभी सदस्य झूठन को खा रहे थे लेकिन शेरू की पत्नी, रानी के मन में सुबह से व्रत करते-करते कुछ प्रश्न जमा हो रहे थे, जिन्हें पूछने का ह मौका तलाश रही थी।
आख़िर उसने भोजन करते-करते शेरू से पूछा -
“स्वामी आख़िर हम कब तक दूसरों का झूठा खाते रहेंगे, क्या हम अपने लिए ख़ुद शिकार नहीं कर सकते?"
शेरू ने रानी के ये वाक्य सुने तो मुँह चलाते हुए बोला -
“अरे जब तक मिलता है तब तक खाओ, आगे की आगे सोचेंगे।"
रानी त्योरियाँ चढ़ाते हुए बोली – “नहीं आगे न खायेंगे, तुम भी तो जवान हो, झींगा बूढ़ा हो चुका हैं लेकिन अब भी शिकार करता हैं क्या तुम नहीं कर सकते?"
रानी की इस बात पर शेरू चुप रहा, कुछ न बोला।
उधर रानी ने पेट भर खाया और बच्चों को को लेकर अपने बिल में जा लेटी। शेरू वही झूठन चाटता रहा लेकिन रानी फिर उसके साथ न बोली।
शेरू की झूठन ख़त्म हुई तो वह भी बिल की तरफ़ चला, लेकिन उदास क़दमों से। उसे वास्तव में रानी ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। वह जाकर बिल में लेट गया लेकिन उसे नींद नहीं आई, वह सोच रहा था आख़िर झींगा इतना बड़ा शिकार कैसे मार लेता है, ऐसी कोन सी शक्ति है उसके पास, जो उसमें बूढ़ा होने पर भी इतना जोश और ताक़त पैदा कर देती है।
शेरू इन्हीं विचारों में काफ़ी देर तक उलझा रहा और यह सोच कर सोया कि कल झींगे शेर की जासूसी करता हूँ और देखता हूँ की ऐसी कौन सी शक्ति है जो उसमें इतना जोश भर देती है। इतना सोच कर शेरू गीदड़ निश्चिंत होकर सो गया।
अगले दिन शेरू जल्दी जाग गया, उसने बिल से बाहर मुँह निकाल कर देखा तो अभी काफ़ी अँधेरा था, और पाला पड़ने के कारण काफ़ी ठंड थी। लेकिन उसने उसकी परवाह नहीं की और वह अपनी पत्नी और बच्चों के उठने से पहले ही झींगे शेर की माँद की तरफ़ चल दिया और जाकर एक काँस के झुंड के पीछे छिप कर बैठ गया।
झींगा शेर अभी जागा न था, कुछ देर बाद सूरज की मीठी धूप चारों ओर फैली तो झींगा अपनी माँद से बाहर आया और उसने कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी और फिर जाकर धूप में बैठ गया।  इसके बाद उसके बच्चे और शेरनी जागी, वे भी माँद से बाहर आये और धूप में बैठ कर ऊँघने लगे और झींगा अपनी उसी तलाश में लग गया कि कब शिकार आये और कब वह उसे मार कर अपने आज के भोजन का इंतज़ाम करे।
काँस के झुंड के पीछे छिपा शेरू झींगे शेर कि इस सारी दिनचर्या को बड़े ध्यान से देख रहा था और इस समय वह झींगे के हर पैंतरे को बड़े ध्यान से सीख कर रहा था।
झींगा अपने परिवार के साथ धूप में बैठा था तो एक जंगली भैंसा पानी कि टोह में उधर से आ निकला, वह धीमे और टूटे क़दमों से चल रहा था। देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शायद वह बीमार था और बीमारी में अपनी प्यास बुझाने तालाब किनारे आया था।
आख़िर जब झींगे ने जंगली भैंसे को देखा तो उसे सुबह-सुबह पौ-बारह होते नज़र आये और वह भैंसे को देखकर खड़ा हो गया।
झींगे शेर के खड़े होते ही शेरू गीदड़ के भी कान खड़े हो गये, उसकी एक आँख शिकार पर लगी हुई थी तो दूसरी आँख झींगे कि हर हरक़त को बारीकी से देख रही थी।
ज्यों ही भैंसा तालाब में पानी पीने के लिए घुसा तो झींगे शेर ने अपना मूल-मंत्र पढ़ा।
वह पास बैठी शेरनी से बोला – “देखो तो ज़रा मेरी पूँछ मुड़ कर पीठ पर आ गई है या नहीं?”
शेरनी ने कहा – “हाँ स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो!"
इसके बाद झींगे ने पूछा -
“मेरी आँखें कैसी लग रही हैं?"
शेरनी ने कहा -"स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मानो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो!"
शेर ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उत्तेजित हो गया और इससे पहले कि जंगली भैंसा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता, झींगे शेर ने एक ही वार में तूफ़ान कि गति से आगे बढ़कर भैंसे को धराशायी कर दिया और उसे खींचकर अपने झुंड में ले आया।
काँस के झुंड के पीछे छुपा शेरू गीदड़ झींगे की ये सारी हरक़त देख रहा था उसने जब झींगे का मूल-मंत्र सुना तो खुशी से झूम उठा और खुशी को कारण जमीन में लोटपोट हो गया।उसने भी आज शक्ति के उस मूल-मन्त्र को पा लिया था जिसे पढ़कर वह भी अधिक शक्तिशाली हो सकता था। वह धूल से उठा और खुशी से कुलाँचे भरता हुआ अपने बिल में जा घुसा।
शेरू की पत्नी रानी अब तक जग चुकी थी उसने शेरू को इतना खुश होते देखा तो बोली –
"क्या बात हैं बड़े खुश नज़र आ रहे हो, ऐसा सुबह-सुबह क्या मिल गया जो तुम फूले नहीं समा रहे हो?"
शेरू बच्चों के पास बैठते हुए टाँग पर टाँग रखकर बोला -
"तुम कहती थी ना मैं शिकार नहीं कर सकता और मैं डरपोक और बुजदिल हूँ, तो तुम झूठ बोलती थी, तुम नहीं जानती मेरे अन्दर कितनी शक्ति है, मैं  चाहूँ तो अच्छे से अच्छे बलशाली को धूल चटा सकता हूँ।“
रानी त्योरियाँ चढाते हुए बोली – “रहने दो, कभी किसी चूहे का शिकार तो किया नहीं,कहते हो बलशाली को धूल चटा सकता हूँ।"
शेरू रहस्यमय मुस्कान होंठों पर लाते हुए बोला – “अरे तुम्हें क्या पता, जब मैं तुम्हें अपनी शक्ति दिखाऊँगा तब देखना दाँतों तले उँगली दबा लोगी, तुम बस ऐसा कहना जैसा मैं कहता हूँ।"
“ठीक हैं कह दूँगी लेकिन कुछ कर के तो दिखाओ", रानी ने कहा।
इसके बाद शेरू का पूरा परिवार उठा और जाकर तालाब किनारे काँस के झुंड में छिपकर बैठ गया  और शेरू इस बात का इंतज़ार करने लगा कि कब कोई शिकार आये और वह उसे अपने मूल-मंत्र से धराशायी करे।
शेरू को अपने परिवार सहित काँस में छुपे-छुपे शाम हो गई थी। सूरज अब डूबने ही वाला था लेकिन शेरू को अब तक कोई ऐसा शिकार दिखाई नहीं दिया था जिस पर वह अपना मूल-मंत्र आज़मा सके।
आख़िर जब शाम होने को आयी तो दरयाई-घोड़ों का वही झुंड जो कल आया था तालाब किनारे पानी पीने आ पहुँचा। जिसे देखते ही शेरू गीदड़ के मुँह में पानी भर आया और उसके पैरों में खुजली होने लगी और ज्यों ही घोड़ों का झुंड तालाब में पानी पीने घुसा तो शेरू खड़ा हो गया। उसने भी अपनी कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी और अपनी पत्नी रानी से मूल-मंत्र पढ़ते हुए बोला -
“देखो तो ज़रा मेरी पूँछ मुड़कर पीठ पर आ गई है या नहीं?"
रानी ने कहा, “हाँ स्वामी आप तो इस समय एक प्रचंड योद्धा की तरह लग रहे हो।“
शेरू आँखें निकलते हुए -"और मेरी आँखें तो देखो लाल हुई या नहीं?”
“हाँ स्वामी आपकी आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मानो ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो!”
शेरू ने इतना सुना तो वास्तव में उसे अपने अन्दर एक शक्ति सी जान पड़ी।  वह तेज़ी से काँस के झुंड के ऊपर से कूदते हुए किसी तूफ़ान की तरह से एक दरियाई घोड़े पर कूद पड़ा। लेकिन ज्योंही शेरू ने घोड़े की पिछली टाँग में अपने दाँत गाड़ने चाहे तो घोड़े ने अपनी शक्तिशाली दुल्लती से शेरू को काँस के झुंडों के ऊपर से दर्जनों मीटर दूर फेंक दिया, जिसके कारण जमीन पर पड़ते ही शेरू का मुँह ज़मीन में चार-पाँच अंगुल नीचे धस गया।
उसकी लाल ज्वालामुखी आँखें धूल मिट्टी के कारण सूखे कुएँ की तरह से रुँध गई और उनका लाल रंग भी पीला-पीला सा दिखाई देने लगा। इसके आलावा उसकी धनुष रूपी पूँछ भी टूटकर नीचे को मुड़ती हुई किसी पिटी भिखारिन की भाँति दोनों टाँगों के बीच में छुप गई।
इतना सब होने के बाद शेरू अपनी टूटी टाँग से खड़ा हुआ और किसी पैर बँधे ख़च्चर की भाँति लँगड़ता हुआ अपने बिल की तरफ़ चल दिया।
शेरू की महेरिया रानी अपने बच्चों के साथ इस समय दूर से अपने स्वामी की इस वीरता को देख रही थी।
लेकिन जब उसने स्वामी को स्वादिष्ट शिकार की जगह जंगली धूल खाते देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह ख़बर लेने के लिए अपने स्वामी की तरफ़ दौड़ी। एक बार रानी डर गई थी लेकिन अगले ही पल शेरू की हालत पर रानी हँस पड़ी उसने उसकी इतनी बुरी हालत आज से पहले कभी नहीं देखी थी।
शेरू ने जब पत्नी के द्वारा उपहास होते देखा तो वह जल उठा और वह रानी हो जलती आँखों से देखते हुए अपने बिल की दीवार के पास बैठ कर अपनी टाँग के दर्द को जीभ से चाटने लगा। लेकिन रानी को अब भी अपने स्वामी की इस मूर्खता भरी वीरता पर हँसी आ रही थी और वह हँसी के कारण मिट्टी में लोट-पोट थी।
Source : http://www.aparajita.org/read_more.php?id=772&position=5&day=5

Wednesday, August 15, 2012

पढ़े-लिखे मूर्ख (पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियां)



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पढ़े-लिखे मूर्ख-

किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए।

अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे। बारह वर्ष तक जी लगाकर पढ़ने के बाद वे सभी अच्छे विद्वान हो गये।

अब उन्होंने सोचा कि हमें जितना पढ़ना था पढ़ लिया। अब अपने गुरु की आज्ञा लेकर हमें वापस अपने नगर लौटना चाहिए। यह निर्णय करने के बाद वे गुरु के पास गये और आज्ञा मिल जाने के बाद पोथे सँभाले अपने नगर की ओर रवाना हुए।

अभी वे कुछ ही दूर गये थे कि रास्ते में एक तिराहा पड़ा। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आगे के दो रास्तों में से कौन-सा उनके अपने नगर को जाता है। अक्ल कुछ काम न दे रही थी। वे यह निर्णय करने बैठ गये कि किस रास्ते से चलना ठीक होगा।

अब उनमें से एक पोथी उलटकर यह देखने लगा कि इसके बारे में उसमें क्या लिखा है।

संयोग कुछ ऐसा था कि उसी समय पास के नगर में एक बनिया मर गया था। उसे जलाने के लिए बहुत से लोग नदी की ओर जा रहे थे। इसी समय उन चारों में से एक ने पोथी में अपने प्रश्न का जवाब भी पा लिया। कौन-सा रास्ता ठीक है कौन-सा नहीं, इसके विषय में उसमें लिखा था, ‘‘महाजनो येन गतः स पन्था।’’

किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि यहाँ महाजन का अर्थ क्या है और किस मार्ग की बात की गयी है। श्रेणी या कारवाँ बनाकर निकलने के कारण बनियों के लिए महाजन शब्द का प्रयोग तो होता ही है, महान व्यक्तियों के लिए भी होता है, यह उन्होंने सोचने की चिन्ता नहीं की। उस पण्डित ने कहा, ‘‘महाजन लोग जिस रास्ते जा रहे हैं उसी पर चलें!’’ और वे चारों श्मशान की ओर जानेवालों के साथ चल दिये।

श्मशान पहुँचकर उन्होंने वहाँ एक गधे को देखा। एकान्त में रहकर पढ़ने के कारण उन्होंने इससे पहले कोई जानवर भी नहीं देखा था। एक ने पूछा, ‘‘भई, यह कौन-सा जीव है?’’

अब दूसरे पण्डित की पोथी देखने की बारी थी। पोथे में इसका भी समाधान था। उसमें लिखा था।

उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।

राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति सः बान्धवः।

बात सही भी थी, बन्धु तो वही है जो सुख में, दुख में, दुर्भिक्ष में, शत्रुओं का सामना करने में, न्यायालय में और श्मशान में साथ दे।

उसने यह श्लोक पढ़ा और कहा, ‘‘यह हमारा बन्धु है।’’ अब इन चारों में से कोई तो उसे गले लगाने लगा, कोई उसके पाँव पखारने लगा।

अभी वे यह सब कर ही रहे थे कि उनकी नजर एक ऊँट पर पड़ी। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इतनी तेजी से चलने वाला यह जानवर है क्या बला!

इस बार पोथी तीसरे को उलटनी पड़ी और पोथी में लिखा था, धर्मस्य त्वरिता गतिः।

धर्म की गति तेज होती है। अब उन्हें यह तय करने में क्या रुकावट हो सकती थी कि धर्म इसी को कहते हैं। पर तभी चौथे को सूझ गया एक रटा हुआ वाक्य, इष्टं धर्मेण योजयेत प्रिय को धर्म से जोड़ना चाहिए।

अब क्या था। उन चारों ने मिलकर उस गधे को ऊँट के गले से बाँध दिया।

अब यह बात किसी ने जाकर उस गधे के मालिक धोबी से कह दी। धोबी हाथ में डण्डा लिये दौड़ा हुआ आया। उसे देखते ही वे वहाँ से चम्पत हो गये।

वे भागते हुए कुछ ही दूर गये होंगे कि रास्ते में एक नदी पड़ गयी। सवाल था कि नदी को पार कैसे किया जाए। अभी वे सोच-विचार कर ही रहे थे कि नदी में बहकर आता हुआ पलाश का एक पत्ता दीख गया। संयोग से पत्ते को देखकर पत्ते के बारे में जो कुछ पढ़ा हुआ था वह एक को याद आ गया। आगमिष्यति यत्पत्रं तत्पारं तारयिष्यति।

आनेवाला पत्र ही पार उतारेगा।

अब किताब की बात गलत तो हो नहीं सकती थी। एक ने आव देखा न ताव, कूदकर उसी पर सवार हो गया। तैरना उसे आता नहीं था। वह डूबने लगा तो एक ने उसको चोटी से पकड़ लिया। उसे चोटी से उठाना कठिन लग रहा था। यह भी अनुमान हो गया था कि अब इसे बचाया नहीं जा सकता। ठीक इसी समय एक दूसरे को किताब में पढ़ी एक बात याद आ गयी कि यदि सब कुछ हाथ से जा रहा हो तो समझदार लोग कुछ गँवाकर भी बाकी को बचा लेते हैं। सबकुछ चला गया तब तो अनर्थ हो जाएगा।

यह सोचकर उसने उस डूबते हुए साथी का सिर काट लिया।

अब वे तीन रह गये। जैसे-तैसे बेचारे एक गाँव में पहुँचे। गाँववालों को पता चला कि ये ब्राह्मण हैं तो तीनों को तीन गृहस्थों ने भोजन के लिए न्यौता दिया। एक जिस घर में गया उसमें उसे खाने के लिए सेवईं दी गयीं। उसके लम्बे लच्छों को देखकर उसे याद आ गया कि दीर्घसूत्री नष्ट हो जाता है, दीर्घसूत्री विनश्यति। मतलब तो था कि दीर्घसूत्री या आलसी आदमी नष्ट हो जाता है पर उसने इसका सीधा अर्थ लम्बे लच्छे और सेवईं के लच्छों पर घटाकर सोच लिया कि यदि उसने इसे खा लिया, तो नष्ट हो जाएगा। वह खाना छोड़कर चला आया।

दूसरा जिस घर में गया था वहाँ उसे रोटी खाने को दी गयी। पोथी फिर आड़े आ गयी। उसे याद आया कि अधिक फैली हुई चीज की उम्र कम होती है, अतिविस्तार विस्तीर्णं तद् भवेत् न चिरायुषम्। वह रोटी खा लेता तो उसकी उम्र घट जाने का खतरा था। वह भी भूखा ही उठ गया।

तीसरे को खाने के लिए ‘बड़ा’ दिया गया। उसमें बीच में छेद तो होता ही है। उसका ज्ञान भी कूदकर उसके और बड़े के बीच में आ गया। उसे याद आया, छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति। छेद के नाम पर उसे बड़े का ही छेद दिखाई दे रहा था। छेद का अर्थ भेद का खुलना भी होता है, यह उसे मालूम ही नहीं था। वह बड़े खा लेता तो उसके साथ भी अनर्थ हो जाता। बेचारा वह भी भूखा रह गया।

लोग उनके ज्ञान पर हँस रहे थे पर उन्हें लग रहा था कि वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। अब वे तीनों भूखे-प्यासे ही अपने-अपने नगर की ओर रवाना हुए।
(पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियां-कमलेश्वर ,हिन्दी समय डॉटकॉम से साभार)

यह कहानी सुनाने के बाद स्वर्णसिद्धि ने कहा, ‘‘तुम भी दुनियादार न होने के कारण ही इस आफत में पड़े। इसीलिए मैं कह रहा था शास्त्रज्ञ होने पर भी मूर्ख मूर्खता करने से बाज नहीं आते।’’

Sunday, July 29, 2012

फूलो का कुर्ता -यशपाल


हमारे यहां गांव बहुत छोटे-छोटे हैं। कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे, दस-बीस घर से लेकर पांच-छह घर तक और बहुत पास-पास। एक गांव पहाड़ की तलछटी में है तो दूसरा उसकी ढलान पर।
बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गांव की सभी आवश्कताएं पूरी कर देती है। उनकी दुकान का बरामदा ही गांव की चौपाल या क्लब है। बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे बच्चे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं।
सुबह से जारी बारिश थमकर कुछ धूप निकल आई थी। घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थी। घर से निकल पड़ा कि बंकू साह के यहां से ले आऊं।
बंकू साह की दुकान के बरामदे में पांच-सात भले आदमी बैठे थे। हुक्का चल रहा था। सामने गांव के बच्चे कीड़ा-कीड़ी का खेल खेल रहे थे। साह की पांच बरस की लड़की फूलो भी उन्हीं में थी।
पांच बरस की लड़की का पहनना और ओढ़ना क्या। एक कुर्ता कंधे से लटका था। फूलो की सगाई गांव से फर्लांग भर दूर चूला गांव में संतू से हो गई थी। संतू की उम्र रही होगी, यही सात बरस। सात बरस का लड़का क्या करेगा। घर में दो भैंसें, एक गाय और दो बैल थे। ढोर चरने जाते तो संतू छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता, ढोर काहे को किसी के खेत में जाएं। सांझ को उन्हें घर हांक लाता।
बारिश थमने पर संतू अपने ढोरों को ढलवान की हरियाली में हांक कर ले जा रहा था। बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा, तो उधर ही आ गया।
संतू को खेल में आया देखकर सुनार का छह बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा। आहा! फूलो का दूल्हा आया है। दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।
बच्चे बड़े-बूढ़ों को देखकर बिना बताए-समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं। फूलो पांच बरस की बच्ची थी तो क्या, वह जानती थी, दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी मां को, गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था। उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है। बच्चों के चिल्लाने से फूलो लजा गई थी, परंतु वह करती तो क्या। एक कुरता ही तो उसके कंधों से लटक रहा था। उसने दोनों हाथों से कुरते का आंचल उठाकर अपना मुख छिपा लिया।
छप्पर के सामने हुक्के को घेरकर बैठे प्रौढ़ आदमी फूलो की इस लज्जा को देखकर कहकहा लगाकर हंस पड़े। काका रामसिंह ने फूलो को प्यार से धमकाकर कुरता नीचे करने के लिए समझाया। शरारती लड़के मजाक समझकर हो-हो करने लगे।
बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था, परंतु फूलो की सरलता से मन चुटिया गया। यों ही लौट चला। बदली परिस्थिति में भी परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या से क्या हो जाता है।
Source : http://www.aparajita.org/read_more.php?id=712&position=3&day=7

Saturday, April 28, 2012

विवाद -एक लघुकथा डा. अनवर जमाल की क़लम से Dispute (Short story)

जंगल में लकड़बग्घों का एक समूह रहता था। जवान लकड़बग्घे शिकार करते, बच्चे खिलवाड़ करते और बूढ़े इंतेज़ार।
एक दिन छोटे छोटे बच्चों ने देखा कि कुछ जवान लकड़बग्घों ने एक हिरन के पीछे दौड़ लगाई और फिर उसे घेर कर पकड़ लिया। किसी लकड़बग्घे ने उसके कूल्हों में अपने पंजे गड़ाए तो किसी ने अपने मुंह से उसके पैर पकड़ लिए और किसी ने उसकी गर्दन दबा ली। तड़पते हुए हिरन ने भी हाथ पांव मारे। बच्चों के सामने शिकार का यह पहला मौक़ा था। उन्होंने यह मंज़र पहली बार देखा था। वे भाग कर अपने बूढ़ों के पास पहुंचे और बोले-‘बाबा, बाबा, वहां न, एक हिरन बहुत झगड़ा कर रहा है।‘
बूढ़ों ने इत्मीनान से जवाब दिया-‘बच्चों ये हिरन बहुत बदमाश होते हैं। जब भी पकड़ो तभी विवाद शुरू कर देते हैं।
बच्चों ने मुड़कर हिरन की तरफ़ देखा। उसके हाथ पांव अब नहीं हिल रहे थे। विवाद पूरी तरह शांत हो चुका था।
बूढ़ा बरगद, नीम, पीपल और झाड़ियां बस ख़ामोश तमाशाई थे। वे कभी विवाद में नहीं पड़ते।


Monday, April 16, 2012

लंबी उम्र जीने के लिए आपको बढ़िया सेक्स करना चाहिए Sex Therapy

हम्ममम... तो आप लंबी उम्र जीना चाहते हैं। अच्छी बात है। लेकिन यदि हम आपको ये बताएं कि लंबी उम्र जीने के लिए आपको बढ़िया सेक्स करना चाहिए, तो क्या लंबी उम्र के इस नुस्खे पर अमल करेंगे ?

यह सच है कि जब जब आप बहुत बढ़िया, तूफानी, तन और मन को झकझोर कर रख देने वाला सेक्स करते हैं तो आपकी जिन्दगी में 10 साल और जुड़ जाते हैं।

वैसे तो हर कोई हर उम्र में बढ़िया सेक्स करना चाहता है लेकिन हर कोई, यह आमतौर पर, नहीं जानता है कि नियमित रूप से जबरदस्त सेक्स करने से आपके उम्र में 8 साल तक का इजाफा हो सकता है। यही नहीं, जितने ज्यादा ऑर्गैज्म (सेक्स का चरम) आप महसूस करेंगे, उतना ही ज्यादा आपके अधिक जीने की संभावना बढ़ेगी।

दरअसल रेग्युलर सेक्स से हॉरमोन लेवल बेहतर होता है, आपके दिल की सेहत भी बढ़िया होती है। यही नहीं, आपके दिमाग की पावर भी बढ़ती है और आपकी रोगों से लड़ने की क्षमता भी विकसित होती है। तो देखिए है न यह एक पंथ दो काज? आनंद के साथ यौवन भी बरकरार... और उम्र में भी बढ़ोतरी।

कुछ और टिप्स ले लीजिए हमसे ताकि आप लंबी उम्र पाने के अपने मकसद में कामयाब हो सकें-

आर्गेज्म के लिए कोशिश करें

ज्यादा से ज्यादा सेक्स करना फायदेमंद उतना नहीं, जितना कि एक अच्छा, ऑर्गेज्म देने वाला सेशन है। क्वालिटी क्वांटिटी से ज्यादा मायने रखती हैं। एक स्टडी के अनुसार, ऑर्गेज्म शरीर में होने वाले इंफेक्शन्स से लड़ने में मदद करते हैं और यह मदद 20 पर्सेंट तक हो सकती है। बुढ़ापे में ऑर्गेज्म पाने वाले पुरुष उन पुरुषों से दोगुना लंबी उम्र जी सकते हैं जो सेक्स नहीं करते हैं। और, औरतें तो आठ साल ज्यादा लंबा जी सकती हैं।

ऑर्गेज्म के जरिए आपके शरीर में ऐसे केमिकल्स का प्रवाह बढ़ता है जो मूड बूस्ट करते हैं। आप रिलैक्स होते हैं और आपकी अपने पार्टनर के साथ इमोशनल बॉन्डिंग मजबूत होती है। खुशहाल कपल्स की आयु सिंगल लोगों और एक खराब रिलेशनशिप में जीने वाले लोगों के मुकाबले ज्यादा होती है।

जो महिलाएं एक हफ्ते में दो बार ऑर्गेज्म प्राप्त करती हैं, उनमें ऐसी महिलाओं के मुकाबले जो कि सेक्स का भरपूर आनंद नहीं ले पाती हैं, हार्ट डिजीज का खतरा 30 पर्सेंट तक कम होता है।

उम्र बढ़ी: आठ साल तक

और.. और.. और...!

यदि आप सप्ताह में एक बार सेक्स करते हैं, यानी कम से कम एक बार तो कर ही लेते हैं, तो आपका हॉरमोन लेवल, हार्ट और ब्रेन- तीनों चीजें टॉप कंडीशन में रहेंगी। और, आप जितना ज्यादा करेंगे यानी एक सप्ताह में तीन या उससे ज्यादा बार, तो आपको हार्ट अटैक का खतरा 50 पर्सेंट तक कम हो जाएगा।

साल बढ़े: दो साल तक।

'तूफानी' सेक्स करें
उम्मीद है तूफानी सेक्स से आप हमारा मतलब समझ गए होंगे। एक ऐसा सेक्स सेशन जिसमें बहुत सारा पैशन हो और वह आपको थका दे। जब आप बीमारी से उठे हों, थके हों, सेक्स करने की इच्छा कम हो, तब ब्रेन में इन चारों में से किसी एक केमिकल की कमी हो जाती है- डोपामाइन ( dopamine ), ऐसीटिकॉलिन ( acetylcholine ), गाबा ( GABA ) और सेरोटिन ( serotonin )। ऐसे में तूफानी सेक्स फायदेमंद होगा।

मूड अच्छा करने के लिए डोपामाइन बढ़ाना जरूरी है। इसके लिए बेसिल, ब्लैक पेपर, मिर्चें, अदरक, जिंजर और हल्दी का सेवन करें। ऐसीटिकॉलिन अलर्टनेस बढ़ाने और फोकस बढ़ाने के लिए जरूरी है। इसके लिए मसालेदार चीजें, बेसिल, पेपरमिंट, तेजपत्ता लें। गाबा कुदरती दवा है अवसाद हटाने की। यह रेड वाइन में मिलता है। सेरोटिन खुशी और रिलैक्सेशन की भावना बढ़ाता है। यह केले और चॉकलेट में पाया जाता है।

साल बढ़े: 10 साल तक।

स्वस्थ रहने में सहायक
एक स्टडी कहती है कि यदि हफ्ते में दो बार अच्छा सेक्स करेंगे तो शरीर में ऐंटिबॉडीज का लेवल बढ़ेगा जिससे शरीर की कोल्ड और फ्लू से रक्षा होगी। और जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, स्टडी कहती है कि, उन्हें इन चीजों से दो-चार ज्यादा होना पड़ता है।

तो दोस्तो, जितना जरूरी हफ्ते में 5 दिन ऑफिस में 'काम' करना है, उतना ही जरूरी हफ्ते में दो दिन बेडरूम में 'काम' करना है। 
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/12688137.cms

Sunday, April 15, 2012

गुल्लक (कहानी) -विकेश निझावन


          -ममी! इस बार कितने दिन के लिये आई हो? शिप्रा ने आईने पर से नज़र हटाते हुए मेरी ओर देखते हुए पूछा तो मैं खिलखिला कर हँस दी।  शिप्रा को बाँहों में भरते हुए मैंने कहा- मेरी बेटी जब तक चाहेगी मैं उसके पास रह लूँगी।            -अगर मैं वापिस ही न जाने दूँ...?
           -तो हम नहीं जाएँगे।
           -सच कह रही हो ममी?
           -क्या हम अपनी बेटी से झूठ बोलेंगे?
           -आई लव यू ममी! आई रियली लव यू! शिप्रा ने मेरे दाएँ गाल पर किस किया और मेरी बाँहों का घेरा तोड़ते हुए बाहर को भाग गई।

            शिप्रा के इस निश्छल स्नेह को मैं समझ पा रही थी। यकीनन मेरे प्यार के लिए वह अतृप्त है। इस पूरे साल के बीच मैं बहुत ही कम आ पायी हूँ। सरकारी नौकरी में कितना काम है कितने बन्धन हैं -इन बातों को शिप्रा क्या समझे। उसकी यह उम्र भी तो नहीं है ये सब समझने की। लेकिन इस बार अपनी इस लम्बी छुट्टी के बीच मैं उसे पूरी तरह से अतृप्त कर ही दूँगी। अपना पिछला एकाकीपन भी भूल जाएगी वह।
             मैं तो अपनी छुट्टियों का भूली ही चली जा रही थी। वर्मा साहब ने रजिस्टर पर नज़र दौड़ाते हुए मुझे कनखियों से देखते हुए कहा था- मिसेज श्रीवास्तवा क्या इस बार श्रीवास्तव साहब से झगड़ा करके आयी हैं?
            -क्या मतलब? मैं चौंकी थी।
            -साल खतम होने जा रहा है।
            -फिर?
             अब तो कुछ रोज़ साहब के पास जाकर रह लीजिए।
            -कैसी बात करते हैं वर्मा साहब! हमारे साहब हमें चाहते हैं और हम उन्हें चाहते हैं यह तो सच है। लेकिन विदाउट पे छुट्टी लेकर घर पर रहना न उन्हें गँवारा है न हमें।
           -भई वही तो बताने जा रहा था। आपकी तो ढेर छुट्टियाँ बन रही हैं। इस पूरे वर्ष में केवल तीन ही तो छुट्टियाँ ली हैं आपने।
            केवल तीन! जतिन की शादी पर ... अरे! मैं तो कन्फयूज़ हो जाती हूँ। वह तो पिछले साल की बात थी। यह वर्ष इतनी तेज़ी से गुज़र गया पता ही नहीं चला। इस बार छुट्टियों में बच्चे यहाँ पर आ गये थे सो उनसे दूरी का पता ही नहीं चला। यों तो उनसे एक-एक पल की दूरी सालती है लेकिन काम के बोझ से इतना दब जाती हूँ कि मुझे उन्हें अपने से दूर रखना ही पड़ता है। यों पिछली बार मेरे चेहरे को देखते हुए पापा ने अनायास कह दिया था- अपनी सेहत का ध्यान रखो। जब बच्चों को हमारे पास छोड़ा है तो हम पर विश्वास भी रखना होगा। यह बात केवल पापा ने ही नहीं ममी भैया और भाभी ने भी कही थी। सच में उनके इन शब्दों से मुझे कहीं भीतर तक राहत मिली थी और मैं बच्चों को लेकर पूरी तरह से निश्चिन्त हो आई थी।

           पिछली छुट्टियों में मैंने देव से फोन पर कह दिया था- मैं इस बार नहीं आ पाऊँगी। नये डायरैक्टर आए हैं अभी हमें उन्हें और उन्हें हमें समझने में समय लगेगा।
           मेरी इस बात पर देव हँस पड़े थे- भई तुम्हें आने के लिये कह कौन रहा है। छुट्टियाँ शुरू होते ही मैं बच्चों को तुम्हारे पास छोड़ जाऊँगा।
           देव जिस रोज़ आए थे अगले रोज़ ईद की छुट्टी थी। एक रोज़ छोड़ कर रविवार था जिस वजह से देव ने चार छुट्टियाँ बना ली थीं। इन चार दिनों को खूब जिया था हमने। ईद के मेले पर शिप्रा और अर्शी ने ढेरों छोटी-छोटी चीज़ें खरीद डाली थीं। लेकिन घर आकर महसूस किया कि अर्शी को अपनी बन्दूक और शिप्रा को अपनी मिट्टी की बत्तख के आकार वाली गुल्लक बहुत पसन्द थी। मेरे पर्स में पड़ी आठ-दस रूपये की रेजगारी शिप्रा ने घर में आते ही अपनी गुल्लक में ड़ाल ली थी।
            हर सुबह उठते ही शिप्रा गुल्लक मेरे सामने ले आती- ममी इसमें कुछ कॉयन्स डालिये न! मुझे अच्छा लगा था कि बच्चे इन छोटी-छोटी चीज़ों के मोह में मुझसे दूर रह सकते हैं।
           छुट्टियाँ खतम होने पर देव बच्चों को लेने आए तो शिप्रा का चेहरा उतर गया था। अर्शी नाना-नानी को बराबर मिस कर रहा था लेकिन शिप्रा ने नाना-नानी के नाम पर कोई उत्सकता जाहिर नहीं की। जाने क्यों वह मेरे चेहरे की ओर देखने लगी तो मैंने तपाक से कहा- नाना-नानी से भी हर रोज़ कॉयन्स डलवाती रहना। फिर देखना गुल्लक जल्दी ही भर जाएगी।
          पल भर के लिये शिप्रा के होंठ फैले थे लेकिन अगले ही पल फिर सिकुड़ कर रह गये। जाते हुए उसने बॉय किया था लेकिन शब्द उसके होंठों पर नहीं थे। मैं समझ गई थी शिप्रा अब बड़ी हो रही है। सब समझने लगी है वह।
          -पापा! एक रोज़ और रुक जाएँ? रात सोने से पहले शिप्रा ने कहा तो देव डपटकर बोले थे- दिमाग खराब हो रहा है तुम्हारा! दो महीने रह लिए क्या मन नहीं भरा तुम्हारा?  मैंने महसूस किया था कि शिप्रा सहम गई है।
          देव के यहाँ से रवाना होते ही मैंने ममी-पापा से फोन पर कह दिया था कि वे शिप्रा का विशेषरूप से ध्यान रखें। शी इज़ मोर सेन्सिटिव।
          -ममी राघव हमें खेलने नहीं देता। शिप्रा ने अपने हाथ मेरे कंधे पर रख दिए तो मैं वर्तमान में लौटी थी- तो उसके साथ मत खेलो।
          -ममी वह गंदी-गंदी बातें करता है।
          -कहा न उसके साथ मत खेला करो। अर्शी को अन्दर बुलाओ हम मिलकर केरम खेलेंगे। मेरी बात पर शिप्रा उछल पड़ी और चहकती हुई सी अर्शी को भी भीतर बुला लाई।

          केरम की गोटियाँ सेट करते हुए अर्शी बोला- ममी राघव को भी बुला लो न! अर्शी ने नज़र उठा कर बाहर की ओर देखा तो मेरी नज़र भी उधर ही घूम गई। मैंने देखा राघव दरवाज़े की ओट में ललचाई नज़रों से हमारी ओर ही देख रहा था।
           -आओ बेटा तुम भी आ जाओ! मैंने कहा तो शिप्रा एकाएक चिल्ला उठी- नहीं ममी! इसे नहीं खिलाएँगे हम। इसे अन्दर मत आने दो। ये गन्दा है। गन्दी बातें करता है ये।
          शिप्रा और अर्शी की तरह राघव भी इस घर में पला और बड़ा हुआ है लेकिन शिप्रा की ज़िद्द के आगे मुझे स्वीकारोक्ति देनी ही पड़ी। मैंने जरा सा लहजा बदला- राघव बेटे वो बाई छत पर कपड़े डाल गई थी न वो उतार ला। मौसम खराब है कहीं बारिश ही न आ जाए। वह मुड़ने को हुआ तो मैंने पुनः उसे रोका- हाँ! एक कप गर्म-गर्म चाय भी बना दे। जरा सर में दर्द है चाय लेकर ठीक हो जाएगा। उसके बाद तू भी खेल लेना।
          -ममी! तुम्हारे सर में दर्द है तो मैं दबाए देती हूँ। तुम आराम कर लो।
          शिप्रा की बात को अर्शी ने काट दिया- चल बुद्धू कहीं की। आराम करने से सर दर्द जाएगा क्या! सर दर्द तो खेलने से जाएगा। खेलने से ममी का ध्यान बंट जाएगा। दोनों बच्चे इतने समझदार हो रहे हैं मैं कहीं भीतर तक गदगद हो आई थी।
           राघव चाय लेकर आया तो मैंने केरम एक ओर सरका दिया- तुम लोग बाहर चल कर खेलो। मैं चाय पीकर थोड़ा आराम करना चाहूँगी।
           -हाँ-हाँ चलो अर्शी और राघव हम बाहर चल कर खेलते हैं। ममी को आराम करने दो। शिप्रा अब तक राघव के प्रति अपने गुस्से को भूल चुकी थी। राघव चलते-चलते बोला- मेमसाहब छोटी मेमसाहब कब आएँगी?
           -अरे आ जाएँगी। तू चलकर अपना काम निबटा। इसे कैसे समझाती मैं कि मेरे आने पर सबको कितनी आज़ादी मिल जाती है। वरना बच्चों की वजह से सबको बंधन तो रहता ही है। जाने अपने कितने-कितने प्रोग्राम इनकी वजह से इन्हें रद्द करने पड़ते होंगे। जब ममी पापा मसूरी गये हुए थे छाया भाभी को दो बार अपनी किट्टी-पार्टी भी मिस करनी पड़ी थी - जय ने बताया था।
           कल छाया भाभी सकुचाती हुई बोली थी- दीदी आज हम ममी के यहाँ चले जाएँ?
           -अरे यह भी कोई पूछने की बात है! जरूर हो आओ। अब मैं इन दोनों के पास हूँ न!
            जय और छाया बाहर को निकले ही थे कि शिप्रा पूछ बैठी- ममी ये लोग कहाँ गए हैं?
           -कौन लोग?
           -मामा और मामी?
           -तुम्हारी मामी अपनी ममी के पास जा रही है। जिस तरह से तुम अपनी ममी के लिए उदास हो जाती हो उसी तरह से तुम्हारी मामी भी अपनी ममी के लिए उदास हो रही थी। तुम लोगों की वजह से वह अपनी ममी के पास भी नहीं जा पाती न।
            -हमारी वजह से! शिप्रा जैसे चौंकती हुई बोली- मामी तो हर सप्ताह अपनी ममी के पास जाती है।
            -हर सप्ताह! कैसी बात करती हो!
            -हाँ! अभी परसों ही तो मामी लौटी है।
            -ये कैसे हो सकता है। मैं शिप्रा की बात पर अविश्वास जताती बोली- पिछले डेढ़ माह से ममी-पापा यहाँ नहीं हैं फिर मामी तुम्हें छोड़ कर कैसे जा सकती है।
            शिप्रा के जवाब से पहले अर्शी बोल पड़ा- मामी हमें शर्मा अंकल के यहाँ छोड़ जाती है। शर्मा अंकल हमें बहुत डांटते हैं। पिछली बार हमारी पिटाई भी हो गई थी ममी। लेकिन तब हमने शर्मा अंकल से सॉरी कह दिया था। हम आगे से डिब्बे में से बिस्किट लेकर नहीं खाया करेंगे।

           ये कैसी असलियत मेरे सामने खुल रही थी। मन तो हुआ था देव से सारी बात फोन पर ही बता दूँ। मैं अकेली इस बात को झेल ही नहीं पा रही थी। जय और छाया से सीधे से बात कर पाने की हिम्मत ही नहीं है। पापा-ममी कब आएँगे इसका अभी कुछ अता-पता नहीं। यों देव से कहने का मतलब तो यही होगा कि मैं खुद ही अपने माँ-बाप और भाई-भाभी की तौहीन करने जा रही हूँ।
            काफी सोच-विचार के बाद इस निर्णय पर पहुँची थी कि मौका लगते ही अकेले में भाभी को ही समझा दूँगी।
            पच्चीस दिन की छुट्टियाँ मैंने सोचा था बहुत लम्बी होंगी। लेकिन वक्त के आगे मैं फिर हार गई। शिप्रा के सामने आह भरते हुए कहा था- बस तीन दिन और रह गये हैं मेरी छुट्टियाँ खतम होने में।
            -उसके बाद?
            -उसके बाद मुझे जाना होगा।
            -तुमने मुझसे प्रामिस किया था ममी कि अब तुम हमें छोड़ कर नहीं जाओगी।
            -नौकरी पर तो जाना ही है बेटे। 
            -नौकरी पर क्यों जाते हैं ममी? शिप्रा के इस सवाल पर मैं हँस पड़ी- नौकरी पर जाने से पैसा मिलता है। उन्हीं पैसों से तो ढेर सारी चीज़ें लाती हूँ तुम्हारे लिये। और फिर भविष्य के लिये पैसा ही तो चाहिये।
            -पैसा...! शिप्रा ने दबे से कहा था और झट से अपने कमरे की ओर भाग गयी। अगले ही पल वह लौट आयी थी। उसके हाथ में मिट्टी की गुल्लक देख मैं कह उठी- हाँ-हाँ! इधर लाओ गुल्लक मैं कॉयन्स डालती हूँ।
            -नहीं ममी पैसा मुझे नहीं पैसा तो आपको चाहिये। शिप्रा ने पटाक से गुल्लक ज़मीन पर दे मारी- आपको पैसा चाहिये न ममी। आप मेरे सारे पैसे ले लो। लेकिन प्लीज़ आप नौकरी पर मत जाओ। हम आप बिना नहीं रह सकते। देखो मैंने अब तक ढेर पैसे जमा कर लिये हैं। मैं सब आपको दे दूँगी।
              शिप्रा का ऐसा विद्रूप रूप को मैं पहली बार देख रही थी। उसके इस व्यवहार से मैं पूरी तरह से टूट गई। लगा अब जाना भी चाहूँ तो नहीं जा पाऊँगी। पल भर में मेरी टाँगें और पाँव बिल्कुल बेजान हो आये। अब तो एक कदम भी नहीं चल पाऊँगी मैं।
              मेरी पूरी रात आँखों में कटी थी। मैंने रात भर में यह निर्णय ले लिया था कि सुबह उठते ही दो काम करूँगी। एक तो देव को फोन पर स्पष्ट कह दूँगी कि मैं नौकरी छोड़ रही हूँ। दूसरे डायरैक्टर साहब को फोन पर ही इतला दे दूँगी कि मैं रेज़गनेशन लैटर भेज रही हूँ।
          लेकिन मेरे सुबह उठने से पहले दरवाज़े पर कॉल-बेल हुई तो मैंने उनींदी आँखों से दरवाज़ा खोला था।  दरवाज़ा खोलते ही मैं हतप्रभ रह गई। सामने देव खड़े थे।
          -आप! मैं चौंकती सी बोली थी।
          -मेरे आने पर इतना चौंकने वाली क्या बात है?
          -नहीं ऐसा नहीं है। मैं झेंपती हुई बोली थी। आप तो पन्द्रह तारीख को आने वाले थे।          -हाँ! सोचा दो दिन तुम्हारे साथ और रह लूँगा। तुम्हें सौलह तारीख सुबह ही तो जाना है।
          -अब केवल दो दिन और नहीं। तुम चाहो तो अब सारी उम्र मेरे साथ रह सकते हो। मुझे इनकी बात से बात करने का मौका मिल गया था।
          -क्या मतलब? देव का चौंकना स्वाभाविक था। अरे अन्दर तो आओ।  मैं भी क्या सुबह-सुबह ले बैठी। आप बाथरूम में चल कर ब्रश कीजिए मैं चाय लेकर आती हूँ।

            बैग ड्राईंगरूम में ही रख ये टॉयलट की ओर बढ़ गए। फ्रेश हो कर लौटे तो मैं डाईनिंग पर चाय के इन्तज़ार में बैठी थी। इनका चेहरा देख मैं हैरान थी। मेरी इतनी बड़ी बात के बावजूद इनके चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं। वैसे यह कोई नई या बड़ी बात नहीं थी मेरे लिये। अक्सर ऐसा होता आया है। मेरी पहाड़ जैसी समस्याओं को सुनकर भी इन्होंने ठहाके लगाये हैं- बस इतनी सी बात थी! इनका पैट वाक्या है यह। मुझे सन्नाटे में देख कह उठते हैं- छोटी-छोटी बातों पर चेहरा ऐसे बना लेती हो जैसे मुर्दाघाट से लौटी हो। मैं अक्सर इन बातों से टूटी हूँ। आँखों से नहीं तो दिल से रोयी हूँ। अगर मेरी वे समस्याएँ इस आदमी के लिये छोटी थीं तो उनमें भी इसने कौन सा साथ दिया मेरा। मैं स्वयं ही उनसे लड़ती रही।
           ये चुपचाप चाय सिप किये जा रहे थे। में अपने द्वन्द्व को झेलती भूल ही गयी कि मेरे आगे चाय का कप रखा है।
          -चाय बहुत गर्म है क्या? इन्होंने कहा तो मैं जैसे धरातल पर गिरी- नहीं तो!
          -बच्चे कब उठते हैं? चाय खतम हो गई तो इन्होंने पूछा।
          -आजकल मस्ती में हैं। आठ बाजे के बाद ही उठते हैं। आज तुम जाकर उठा लो न।
           -मैं जानता था तुम्हारे होते ये इसी तरह बिगड़ेंगे। देव बेड़रूम की ओर बढ़ते हुए बोले।            यह वाक्य मज़ाक में कहा गया है या फिर सच में मुझ पर आरोप लगाया जा रहा है मैं बात को पूरी तरह से पकड़ नहीं पायी थी।
           कमरे में पहुँच ये अर्शी के साथ बैड पर बैठ गए । मैं शिप्रा के बालों पर हाथ फेरती बोली- देखो बेटे पापा आए हैं।
           बच्चे गहरी नींद में थे। मैं शिप्रा से नज़र हटा इनसे मुखातिब हुई- शिप्रा कुछ परेशान है।
           -क्यों?
           -भैया-भाभी इन्हें कुछ निगलैक्ट कर रहे हैं।
           -मतलब?
           -कल ही दोनों बता रहे थे कि भाभी कई बार इन्हें शर्मा अंकल के यहाँ छोड़ कर चले जाती है।
           -जब बच्चे तुम्हारे साथ थे तो तुम कितने घंटे उन्हें पड़ौसियों के यहाँ छोड़ शॉपिंग के लिये जाती थी याद है तुम्हे?
            इनके दो टूक जवाब ने पलभर के लिए मुझे पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। लेकिन अगले ही पल मैं सीधे ही विषय पर आ गई थी- देव मैं नौकरी छोड़ रही हूँ। शिप्रा अब बड़ी हो रही है मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहती।
           -तुम नौकरी छोड़ रही हो! देव ने एक-एक शब्द को चबाते हुए जिस हेय दृष्टि से मेरी ओर देखा मैं बुरी तरह से आतंकित हो आई थी। ये उसी रौ में बोले- मैं जानता हूँ तुमने कभी दिमाग से काम नहीं लिया वरना इतनी घटिया बात कभी न करती। तुम मेरी कमाई पर ऐश करना चाहती हो या फिर तुम्हे अपने ही माँ-बाप  भाई-बहन पर सन्देह होने लगा है। केवल मेरी तनख्वाह पर कितना बना लोगी? बच्चों की पढ़ाई बच्चों का भविष्य उसकी कोई परवाह है तुम्हे!
           बच्चों का भविष्य! मेरा मन चीत्कार उठा। बच्चों का वर्तमान ही नहीं है तो फिर उनका भविष्य क्या होगा? राघव और शर्मा जैसे कई चहरे मेरे सामने अट्टहास कर उठे थे लेकिन मैं समझ गई थी देव मेरी बात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। अर्थ उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। मेरे एक शब्द और पर वे मुझे जलालत की गर्त में फैंक देंगे। तब नहीं सह पाऊंगी मैं। मुझे वापिस जाना पड़ेगा। यह व्यक्ति जो मेरा पति होने का दम्भ भरता है मेरे ऊपर अपनी कमाई का एक पैसा लगा पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
           मुझे लगा था शिप्रा की उस टूटी हुई गुल्लक की तरह मैं भी टूटकर पूरी तरह से बिखर चुकी हूँ । अब मैं न उनका वर्तमान समेट सकती हूँ न उनका भविष्य।

Source : http://www.aparajita.org/read_more.php?id=182&position=4&day=7