Friday, August 24, 2012

चला गीदड़ शिकारी बनने Story for children

मूल-मंत्र/ विजय-राज चौहान


झींगा शेर तालाब के किनारे काँस के झुंडों के बीच में अपने भूखे बच्चों और पत्नी के साथ बैठा सूरज की मीठी धूप में ऊँघ रहा था। इस समय उसकी आँखें बंद थी और वह अपने सुनहरे दिनों के सपनों में खोया हुआ था उसे अपनी जवानी के उन दिनों की याद आ रही थी जब वह खूब शक्तिशाली था उन दिनों का भी क्या रंग था, क्या ताक़त थी, शरीर की चुस्ती और फुरती के आगे क्या मजाल थी कि कोई शिकार हाथों से निकल जाये। अगर उसे दिन में दो-तीन बार भी शिकार के पीछे दौड़ना पड़ता था तो वह तब भी नहीं थकता था। लेकिन अब उम्र का तक़ाज़ा था कि अब उसे एक शिकार मारने के लिए भी तालाब के किनारे कई-कई घंटे इंतज़ार करना पड़ता था, और कभी तो पूरा दिन भी कोई शिकार नहीं मिलता था और भूखों ही सो जाना पड़ता था। उसकी यह हालत बूढ़े हो जाने के कारण थी क्योंकि अब उसके शरीर की शक्ति अब क्षीण हो चुकी थी इसलिए वह अब तालाब के किनारे पानी पीने आए एक-आध कमज़ोर पशु को ही मार पता था और उसे उसी से ही अपने परिवार की भूख को शांत करना पड़ता था।
लेकिन आज सुबह से शाम होने को आयी, तो भी कोई शिकार दिखाई नहीं दिया था।
झींगा शेर की माँद से कुछ दूर पर ही शेरू नाम का एक गीदड़ भी अपनी पत्नी रानी और अपने दो बच्चों के साथ एक बिल में रहता था।
शेरू के परिवार का पेट भी काफ़ी हद तक झींगा शेर के शिकार के ऊपर ही निर्भर करता था क्योंकि जब झींगा किसी शिकार की मार डालता था तो शेरू का परिवार भी बची झूठन को कई दिनों तक खाता था।
लेकिन आज शेरू के परिवार का भी भूख के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था। लेकिन फिर भी वह अपने परिवार के साथ किसी शुभ घड़ी के इंतजार में, झींगे के ऊपर नज़रें गड़ाये बैठा था।
आखिर जब सूरज क्षितिज में छुपने जा रहा था तो शुभ घड़ी आ पहुँची और एक दरियाई घोड़ों का झुंड तालाब किनारे आ पहुँचा। झुंड को देखते ही दोनों परिवारों में खुशी ही लहर दौड़ गई, झींगे ने भी झुंड को देखते ही अपनी स्थिति को सँभाला और खड़ा होकर कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई ली। इसके बाद उसने हाथ पैरों को झटका और किसी पहलवान की तरह से आगे पीछे किया। इसके बाद उसने मूल-मन्त्र करने के लिए अपनी पत्नी को पास बुलाया जिससे झींगे के शरीर में एक उतेजना पैदा हो गई।
उसने अपनी पूछ को कमर पर मोड़ा और आँखें लाल कीं, फिर उसने अपनी पत्नी से पूछा-
- “देखो तो ज़रा मेरी पूँछ मुड़ कर पीठ पर आ गई है या नहीं?"
शेरनी ने कहा – “हाँ स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो।“
इसके बाद झींगे ने पूछा -
“मेरी आँखें कैसी लग रही हैं?"
शेरनी ने कहा – “स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मानो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो!"
झींगे ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उतेजित हो गया और उसने तूफ़ान की गति से दौड़ कर एक ही झटके में एक कमज़ोर से दिखाई देने वाले दरियाई घोड़े को मार गिराया जिसे वह खींचकर अपने झुंड में ले आया।
इसके बाद पूरे परिवार ने व्रत तोड़ा और खूब डट कर खाया और फिर पेट पर हाथ फिराते हुए अपनी माँद की तरफ़ चल पड़े।
झींगा शेर ने जब से शिकार किया तब से ही शेरू गीदड़ का परिवार भी उन पर आँखें गड़ाये बैठा था, झींगे का परिवार पत्तल से उठ कर चला तो शेरू झूठी पत्तल को साफ़ करने के लिए उसकी तरफ़ दौड़ा और वह भी अपने परिवार सहित अपनी भूख मिटाने में जुट गया।
परिवार के सभी सदस्य झूठन को खा रहे थे लेकिन शेरू की पत्नी, रानी के मन में सुबह से व्रत करते-करते कुछ प्रश्न जमा हो रहे थे, जिन्हें पूछने का ह मौका तलाश रही थी।
आख़िर उसने भोजन करते-करते शेरू से पूछा -
“स्वामी आख़िर हम कब तक दूसरों का झूठा खाते रहेंगे, क्या हम अपने लिए ख़ुद शिकार नहीं कर सकते?"
शेरू ने रानी के ये वाक्य सुने तो मुँह चलाते हुए बोला -
“अरे जब तक मिलता है तब तक खाओ, आगे की आगे सोचेंगे।"
रानी त्योरियाँ चढ़ाते हुए बोली – “नहीं आगे न खायेंगे, तुम भी तो जवान हो, झींगा बूढ़ा हो चुका हैं लेकिन अब भी शिकार करता हैं क्या तुम नहीं कर सकते?"
रानी की इस बात पर शेरू चुप रहा, कुछ न बोला।
उधर रानी ने पेट भर खाया और बच्चों को को लेकर अपने बिल में जा लेटी। शेरू वही झूठन चाटता रहा लेकिन रानी फिर उसके साथ न बोली।
शेरू की झूठन ख़त्म हुई तो वह भी बिल की तरफ़ चला, लेकिन उदास क़दमों से। उसे वास्तव में रानी ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। वह जाकर बिल में लेट गया लेकिन उसे नींद नहीं आई, वह सोच रहा था आख़िर झींगा इतना बड़ा शिकार कैसे मार लेता है, ऐसी कोन सी शक्ति है उसके पास, जो उसमें बूढ़ा होने पर भी इतना जोश और ताक़त पैदा कर देती है।
शेरू इन्हीं विचारों में काफ़ी देर तक उलझा रहा और यह सोच कर सोया कि कल झींगे शेर की जासूसी करता हूँ और देखता हूँ की ऐसी कौन सी शक्ति है जो उसमें इतना जोश भर देती है। इतना सोच कर शेरू गीदड़ निश्चिंत होकर सो गया।
अगले दिन शेरू जल्दी जाग गया, उसने बिल से बाहर मुँह निकाल कर देखा तो अभी काफ़ी अँधेरा था, और पाला पड़ने के कारण काफ़ी ठंड थी। लेकिन उसने उसकी परवाह नहीं की और वह अपनी पत्नी और बच्चों के उठने से पहले ही झींगे शेर की माँद की तरफ़ चल दिया और जाकर एक काँस के झुंड के पीछे छिप कर बैठ गया।
झींगा शेर अभी जागा न था, कुछ देर बाद सूरज की मीठी धूप चारों ओर फैली तो झींगा अपनी माँद से बाहर आया और उसने कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी और फिर जाकर धूप में बैठ गया।  इसके बाद उसके बच्चे और शेरनी जागी, वे भी माँद से बाहर आये और धूप में बैठ कर ऊँघने लगे और झींगा अपनी उसी तलाश में लग गया कि कब शिकार आये और कब वह उसे मार कर अपने आज के भोजन का इंतज़ाम करे।
काँस के झुंड के पीछे छिपा शेरू झींगे शेर कि इस सारी दिनचर्या को बड़े ध्यान से देख रहा था और इस समय वह झींगे के हर पैंतरे को बड़े ध्यान से सीख कर रहा था।
झींगा अपने परिवार के साथ धूप में बैठा था तो एक जंगली भैंसा पानी कि टोह में उधर से आ निकला, वह धीमे और टूटे क़दमों से चल रहा था। देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शायद वह बीमार था और बीमारी में अपनी प्यास बुझाने तालाब किनारे आया था।
आख़िर जब झींगे ने जंगली भैंसे को देखा तो उसे सुबह-सुबह पौ-बारह होते नज़र आये और वह भैंसे को देखकर खड़ा हो गया।
झींगे शेर के खड़े होते ही शेरू गीदड़ के भी कान खड़े हो गये, उसकी एक आँख शिकार पर लगी हुई थी तो दूसरी आँख झींगे कि हर हरक़त को बारीकी से देख रही थी।
ज्यों ही भैंसा तालाब में पानी पीने के लिए घुसा तो झींगे शेर ने अपना मूल-मंत्र पढ़ा।
वह पास बैठी शेरनी से बोला – “देखो तो ज़रा मेरी पूँछ मुड़ कर पीठ पर आ गई है या नहीं?”
शेरनी ने कहा – “हाँ स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो!"
इसके बाद झींगे ने पूछा -
“मेरी आँखें कैसी लग रही हैं?"
शेरनी ने कहा -"स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मानो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो!"
शेर ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उत्तेजित हो गया और इससे पहले कि जंगली भैंसा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता, झींगे शेर ने एक ही वार में तूफ़ान कि गति से आगे बढ़कर भैंसे को धराशायी कर दिया और उसे खींचकर अपने झुंड में ले आया।
काँस के झुंड के पीछे छुपा शेरू गीदड़ झींगे की ये सारी हरक़त देख रहा था उसने जब झींगे का मूल-मंत्र सुना तो खुशी से झूम उठा और खुशी को कारण जमीन में लोटपोट हो गया।उसने भी आज शक्ति के उस मूल-मन्त्र को पा लिया था जिसे पढ़कर वह भी अधिक शक्तिशाली हो सकता था। वह धूल से उठा और खुशी से कुलाँचे भरता हुआ अपने बिल में जा घुसा।
शेरू की पत्नी रानी अब तक जग चुकी थी उसने शेरू को इतना खुश होते देखा तो बोली –
"क्या बात हैं बड़े खुश नज़र आ रहे हो, ऐसा सुबह-सुबह क्या मिल गया जो तुम फूले नहीं समा रहे हो?"
शेरू बच्चों के पास बैठते हुए टाँग पर टाँग रखकर बोला -
"तुम कहती थी ना मैं शिकार नहीं कर सकता और मैं डरपोक और बुजदिल हूँ, तो तुम झूठ बोलती थी, तुम नहीं जानती मेरे अन्दर कितनी शक्ति है, मैं  चाहूँ तो अच्छे से अच्छे बलशाली को धूल चटा सकता हूँ।“
रानी त्योरियाँ चढाते हुए बोली – “रहने दो, कभी किसी चूहे का शिकार तो किया नहीं,कहते हो बलशाली को धूल चटा सकता हूँ।"
शेरू रहस्यमय मुस्कान होंठों पर लाते हुए बोला – “अरे तुम्हें क्या पता, जब मैं तुम्हें अपनी शक्ति दिखाऊँगा तब देखना दाँतों तले उँगली दबा लोगी, तुम बस ऐसा कहना जैसा मैं कहता हूँ।"
“ठीक हैं कह दूँगी लेकिन कुछ कर के तो दिखाओ", रानी ने कहा।
इसके बाद शेरू का पूरा परिवार उठा और जाकर तालाब किनारे काँस के झुंड में छिपकर बैठ गया  और शेरू इस बात का इंतज़ार करने लगा कि कब कोई शिकार आये और वह उसे अपने मूल-मंत्र से धराशायी करे।
शेरू को अपने परिवार सहित काँस में छुपे-छुपे शाम हो गई थी। सूरज अब डूबने ही वाला था लेकिन शेरू को अब तक कोई ऐसा शिकार दिखाई नहीं दिया था जिस पर वह अपना मूल-मंत्र आज़मा सके।
आख़िर जब शाम होने को आयी तो दरयाई-घोड़ों का वही झुंड जो कल आया था तालाब किनारे पानी पीने आ पहुँचा। जिसे देखते ही शेरू गीदड़ के मुँह में पानी भर आया और उसके पैरों में खुजली होने लगी और ज्यों ही घोड़ों का झुंड तालाब में पानी पीने घुसा तो शेरू खड़ा हो गया। उसने भी अपनी कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी और अपनी पत्नी रानी से मूल-मंत्र पढ़ते हुए बोला -
“देखो तो ज़रा मेरी पूँछ मुड़कर पीठ पर आ गई है या नहीं?"
रानी ने कहा, “हाँ स्वामी आप तो इस समय एक प्रचंड योद्धा की तरह लग रहे हो।“
शेरू आँखें निकलते हुए -"और मेरी आँखें तो देखो लाल हुई या नहीं?”
“हाँ स्वामी आपकी आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मानो ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो!”
शेरू ने इतना सुना तो वास्तव में उसे अपने अन्दर एक शक्ति सी जान पड़ी।  वह तेज़ी से काँस के झुंड के ऊपर से कूदते हुए किसी तूफ़ान की तरह से एक दरियाई घोड़े पर कूद पड़ा। लेकिन ज्योंही शेरू ने घोड़े की पिछली टाँग में अपने दाँत गाड़ने चाहे तो घोड़े ने अपनी शक्तिशाली दुल्लती से शेरू को काँस के झुंडों के ऊपर से दर्जनों मीटर दूर फेंक दिया, जिसके कारण जमीन पर पड़ते ही शेरू का मुँह ज़मीन में चार-पाँच अंगुल नीचे धस गया।
उसकी लाल ज्वालामुखी आँखें धूल मिट्टी के कारण सूखे कुएँ की तरह से रुँध गई और उनका लाल रंग भी पीला-पीला सा दिखाई देने लगा। इसके आलावा उसकी धनुष रूपी पूँछ भी टूटकर नीचे को मुड़ती हुई किसी पिटी भिखारिन की भाँति दोनों टाँगों के बीच में छुप गई।
इतना सब होने के बाद शेरू अपनी टूटी टाँग से खड़ा हुआ और किसी पैर बँधे ख़च्चर की भाँति लँगड़ता हुआ अपने बिल की तरफ़ चल दिया।
शेरू की महेरिया रानी अपने बच्चों के साथ इस समय दूर से अपने स्वामी की इस वीरता को देख रही थी।
लेकिन जब उसने स्वामी को स्वादिष्ट शिकार की जगह जंगली धूल खाते देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह ख़बर लेने के लिए अपने स्वामी की तरफ़ दौड़ी। एक बार रानी डर गई थी लेकिन अगले ही पल शेरू की हालत पर रानी हँस पड़ी उसने उसकी इतनी बुरी हालत आज से पहले कभी नहीं देखी थी।
शेरू ने जब पत्नी के द्वारा उपहास होते देखा तो वह जल उठा और वह रानी हो जलती आँखों से देखते हुए अपने बिल की दीवार के पास बैठ कर अपनी टाँग के दर्द को जीभ से चाटने लगा। लेकिन रानी को अब भी अपने स्वामी की इस मूर्खता भरी वीरता पर हँसी आ रही थी और वह हँसी के कारण मिट्टी में लोट-पोट थी।
Source : http://www.aparajita.org/read_more.php?id=772&position=5&day=5

Wednesday, August 15, 2012

पढ़े-लिखे मूर्ख (पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियां)



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पढ़े-लिखे मूर्ख-

किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए।

अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे। बारह वर्ष तक जी लगाकर पढ़ने के बाद वे सभी अच्छे विद्वान हो गये।

अब उन्होंने सोचा कि हमें जितना पढ़ना था पढ़ लिया। अब अपने गुरु की आज्ञा लेकर हमें वापस अपने नगर लौटना चाहिए। यह निर्णय करने के बाद वे गुरु के पास गये और आज्ञा मिल जाने के बाद पोथे सँभाले अपने नगर की ओर रवाना हुए।

अभी वे कुछ ही दूर गये थे कि रास्ते में एक तिराहा पड़ा। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आगे के दो रास्तों में से कौन-सा उनके अपने नगर को जाता है। अक्ल कुछ काम न दे रही थी। वे यह निर्णय करने बैठ गये कि किस रास्ते से चलना ठीक होगा।

अब उनमें से एक पोथी उलटकर यह देखने लगा कि इसके बारे में उसमें क्या लिखा है।

संयोग कुछ ऐसा था कि उसी समय पास के नगर में एक बनिया मर गया था। उसे जलाने के लिए बहुत से लोग नदी की ओर जा रहे थे। इसी समय उन चारों में से एक ने पोथी में अपने प्रश्न का जवाब भी पा लिया। कौन-सा रास्ता ठीक है कौन-सा नहीं, इसके विषय में उसमें लिखा था, ‘‘महाजनो येन गतः स पन्था।’’

किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि यहाँ महाजन का अर्थ क्या है और किस मार्ग की बात की गयी है। श्रेणी या कारवाँ बनाकर निकलने के कारण बनियों के लिए महाजन शब्द का प्रयोग तो होता ही है, महान व्यक्तियों के लिए भी होता है, यह उन्होंने सोचने की चिन्ता नहीं की। उस पण्डित ने कहा, ‘‘महाजन लोग जिस रास्ते जा रहे हैं उसी पर चलें!’’ और वे चारों श्मशान की ओर जानेवालों के साथ चल दिये।

श्मशान पहुँचकर उन्होंने वहाँ एक गधे को देखा। एकान्त में रहकर पढ़ने के कारण उन्होंने इससे पहले कोई जानवर भी नहीं देखा था। एक ने पूछा, ‘‘भई, यह कौन-सा जीव है?’’

अब दूसरे पण्डित की पोथी देखने की बारी थी। पोथे में इसका भी समाधान था। उसमें लिखा था।

उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।

राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति सः बान्धवः।

बात सही भी थी, बन्धु तो वही है जो सुख में, दुख में, दुर्भिक्ष में, शत्रुओं का सामना करने में, न्यायालय में और श्मशान में साथ दे।

उसने यह श्लोक पढ़ा और कहा, ‘‘यह हमारा बन्धु है।’’ अब इन चारों में से कोई तो उसे गले लगाने लगा, कोई उसके पाँव पखारने लगा।

अभी वे यह सब कर ही रहे थे कि उनकी नजर एक ऊँट पर पड़ी। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इतनी तेजी से चलने वाला यह जानवर है क्या बला!

इस बार पोथी तीसरे को उलटनी पड़ी और पोथी में लिखा था, धर्मस्य त्वरिता गतिः।

धर्म की गति तेज होती है। अब उन्हें यह तय करने में क्या रुकावट हो सकती थी कि धर्म इसी को कहते हैं। पर तभी चौथे को सूझ गया एक रटा हुआ वाक्य, इष्टं धर्मेण योजयेत प्रिय को धर्म से जोड़ना चाहिए।

अब क्या था। उन चारों ने मिलकर उस गधे को ऊँट के गले से बाँध दिया।

अब यह बात किसी ने जाकर उस गधे के मालिक धोबी से कह दी। धोबी हाथ में डण्डा लिये दौड़ा हुआ आया। उसे देखते ही वे वहाँ से चम्पत हो गये।

वे भागते हुए कुछ ही दूर गये होंगे कि रास्ते में एक नदी पड़ गयी। सवाल था कि नदी को पार कैसे किया जाए। अभी वे सोच-विचार कर ही रहे थे कि नदी में बहकर आता हुआ पलाश का एक पत्ता दीख गया। संयोग से पत्ते को देखकर पत्ते के बारे में जो कुछ पढ़ा हुआ था वह एक को याद आ गया। आगमिष्यति यत्पत्रं तत्पारं तारयिष्यति।

आनेवाला पत्र ही पार उतारेगा।

अब किताब की बात गलत तो हो नहीं सकती थी। एक ने आव देखा न ताव, कूदकर उसी पर सवार हो गया। तैरना उसे आता नहीं था। वह डूबने लगा तो एक ने उसको चोटी से पकड़ लिया। उसे चोटी से उठाना कठिन लग रहा था। यह भी अनुमान हो गया था कि अब इसे बचाया नहीं जा सकता। ठीक इसी समय एक दूसरे को किताब में पढ़ी एक बात याद आ गयी कि यदि सब कुछ हाथ से जा रहा हो तो समझदार लोग कुछ गँवाकर भी बाकी को बचा लेते हैं। सबकुछ चला गया तब तो अनर्थ हो जाएगा।

यह सोचकर उसने उस डूबते हुए साथी का सिर काट लिया।

अब वे तीन रह गये। जैसे-तैसे बेचारे एक गाँव में पहुँचे। गाँववालों को पता चला कि ये ब्राह्मण हैं तो तीनों को तीन गृहस्थों ने भोजन के लिए न्यौता दिया। एक जिस घर में गया उसमें उसे खाने के लिए सेवईं दी गयीं। उसके लम्बे लच्छों को देखकर उसे याद आ गया कि दीर्घसूत्री नष्ट हो जाता है, दीर्घसूत्री विनश्यति। मतलब तो था कि दीर्घसूत्री या आलसी आदमी नष्ट हो जाता है पर उसने इसका सीधा अर्थ लम्बे लच्छे और सेवईं के लच्छों पर घटाकर सोच लिया कि यदि उसने इसे खा लिया, तो नष्ट हो जाएगा। वह खाना छोड़कर चला आया।

दूसरा जिस घर में गया था वहाँ उसे रोटी खाने को दी गयी। पोथी फिर आड़े आ गयी। उसे याद आया कि अधिक फैली हुई चीज की उम्र कम होती है, अतिविस्तार विस्तीर्णं तद् भवेत् न चिरायुषम्। वह रोटी खा लेता तो उसकी उम्र घट जाने का खतरा था। वह भी भूखा ही उठ गया।

तीसरे को खाने के लिए ‘बड़ा’ दिया गया। उसमें बीच में छेद तो होता ही है। उसका ज्ञान भी कूदकर उसके और बड़े के बीच में आ गया। उसे याद आया, छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति। छेद के नाम पर उसे बड़े का ही छेद दिखाई दे रहा था। छेद का अर्थ भेद का खुलना भी होता है, यह उसे मालूम ही नहीं था। वह बड़े खा लेता तो उसके साथ भी अनर्थ हो जाता। बेचारा वह भी भूखा रह गया।

लोग उनके ज्ञान पर हँस रहे थे पर उन्हें लग रहा था कि वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। अब वे तीनों भूखे-प्यासे ही अपने-अपने नगर की ओर रवाना हुए।
(पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियां-कमलेश्वर ,हिन्दी समय डॉटकॉम से साभार)

यह कहानी सुनाने के बाद स्वर्णसिद्धि ने कहा, ‘‘तुम भी दुनियादार न होने के कारण ही इस आफत में पड़े। इसीलिए मैं कह रहा था शास्त्रज्ञ होने पर भी मूर्ख मूर्खता करने से बाज नहीं आते।’’