Thursday, July 3, 2014

दज्जाल के रंगरूट

दज्जाल आया। मुल्क तबाह किए। कठपुतली सरकारें बिठाईं और चल दिया। जाने से पहले रंगरूट भर्ती किए उन्हें ट्रेनिंग दी। वे रंगरूट ट्रेनिंग पाकर पुरानी सरकार के समर्थकों को मारते, जिन्हें दज्जाल ख़ुद भी मारता रहा है। पुराने फ़ौजियों ने ट्रेनिंग पूरी करने से पहले ही रंगरूटों को मार गिराया। मरने वालों में इस फ़िरक़े के भी थे और उस फ़िरक़े के भी, इस इलाक़े के भी थे और उस इलाक़े के भी लेकिन फिर भी एक फ़िरक़े के शायद ज़्यादा थे। उस फ़िरक़े के मुज्तहिद ने दज्जाली रंगरूटों को मज़लूम शहीद घोषित कर दिया और उनके लिए अल्लाह से दुआए मग़फ़िरत की। इसी के साथ उसने फ़तवा दे दिया कि इन दज्जाली रंगरूटों को मारने वाले ज़ालिम हैं, काफ़िर हैं, इनसे जिहाद किया जाए। 
जज़्बाती अवाम फ़तवे को न मानती तो काफ़िर हो जाती, ऐसा उसके माइंड को पहले से ही कंडीशन्ड कर रखा है। सो जान बचाने के लिए भागने वाले अब ईमान बचाने के लिए मजबूरन जिहाद (?) कर रहे हैं। खुद मर रहे हैं लेकिन दज्जाल के दुश्मनों को भी मार रहे हैं। जिहाद इसलाम (?) के लिए हो रहा है और उसका फ़ायदा दज्जाल को पहुँच रहा है। 
कठपुतली सरकार ने माई बाप दज्जाल से विनती की थी कि जनाब हवाई हमलों से पुरानी सरकार के फ़ौजियों को तहस नहस कर दीजिए, चाहे इसमें अवाम पहले की तरह लाखों ही क्यों न मारी जाए।
दज्जाल ने खींसें निपोर दीं। बोला, अपना मामला खुद सुलट लो। उसे पता है कि इनसे सुलटेगा नहीं और सुलटता भी होगा तो हम सुलटने थोड़े ही देंगे। जिहाद (?) चल रहा है, चलता रहेगा। 
दज्जाल यही चाहता है।

Thursday, April 10, 2014

लिफ़्ट (कहानी) दूसरा भाग

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मेरी चेतना हल्के हल्के डूब रही थी। सीढ़ियों पर ढहते हुए मैंने देखा कि उस लड़की के मुंह से अब क़हक़हों के बजाय चीख़ें निकल रही थीं-‘हेल्प, हेल्प, प्लीज़ हेल्प, समवन हेल्प प्लीज़‘।
इंसान तड़पकर पुकारे और मदद न आए यह हो नहीं सकता। उसकी पुकार पर होटल के एक रूम से जो शख्स बाहर निकल कर आया वह एक चाइनीज़ था। उसके बाद एक एक करके और भी कई लोग निकल आए। उस चीनी आदमी ने फ़ौरन मेरे हाथ के दो तीन प्वांइट्स पर दबाव डाला और मेरी हालत नॉर्मल हो गई।
मैंने हैरानी से पूछा-‘यह क्या जादू है?’
चीनी आदमी ने कहा-‘दिस इज़ सु-जोक’।
मैं अपना लिबास दुरूस्त करते हुए खड़ा हुआ। मैंने उस चीनी आदमी का शुक्रिया अदा किया। उसने उस वक्त अपना पूरा नाम जो भी बताया था लेकिन अब उसमें से सिर्फ़ ‘वांग’ ही याद रह गया है। मिस्टर वांग अपने रूम की तरफ़ पलटे तो तमाम लोग भी उनके पीछे पीछे उनके रूम में ही दाखि़ल हो गए। सभी बीमार थे। आजकल दिल, गुर्दे और फेफड़ों की बीमारियां आम हैं और उनसे भी ज़्यादा मन के रोग। मन के रोग जितने जटिल होते हैं, इनका इलाज इतना ही आसान होता है।
लड़की की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू टप टप ज़मीन पर गिर रहे थे। उसका मन धुल रहा था। वह सीढ़ियों के नीचे खड़ी थी और मैं चन्द सीढ़ियां ऊपर। उसने अपनी पलकें उठाकर मेरी तरफ़ क्षमा याचना के भाव से देखा। ...यानि कि वह सेहतमंद हो चुकी थी।
मैं मुस्कुराया और उसकी तरफ़ आगे बढ़कर मैंने उसे अपना कार्ड देते हुए कहा-‘हमारे घर आना। तुम्हें अपनी बेटियों से मिलवाऊंगा। उन्हें अपनी एक नई बहन से मिलकर बेहद ख़ुशी होगी।’
उसने ‘हां’ कहने के लिए अपनी गर्दन को हिलाया। मैं लिफ़्ट की तरफ़ बढ़ गया। मैंने मुड़कर देखा तो उसके होंठो पर मुस्कुराहट खेल रही थी जबकि उसकी आंखों में आंसू अभी भी फंसे हुए से थे मगर बहना बन्द हो चुके थे। मैंने अपनी जेब से रूमाल निकाल कर उसकी तरफ़ उछाल दिया। जो हवा में लहराता हुआ ठीक उसके चेहरे पर जा चिपका।
लड़की ने रूमाल को अपने सिर पर खींच लिया। लिफ़्ट के बन्द होते हुए दरवाज़े से मैंने उस लड़की का चेहरा देखा। उसका चेहरा अब मेरी बेटियों से मिल रहा था।

Monday, March 31, 2014

चाय के ठेले पर विकास पुरूष vikas purush

के बाद अब पेश है एक कहानी-
चाय का ठेले पर विकास पुरूष
अड्डू दादा आजकल आहत हैं। वैसे तो उनका नाम लालवाणी है लेकिन गांव में आधे लोग उन्हें नफ़रत से अड्डू कहकर पुकारते हैं। गांव पर वह किसी अड्डू से कम नहीं थे। बच्चे कांच की गोलियां खेलते हैं तो उसमें ग़लती हो जाए तो जुर्माना भरना पड़ता है। उस जुर्माने को गांव में अड्डू कहा जाता है। अड्डू दादा बंटवारे के समय सिंध से आकर इस गांव में बस गए थे। उनके बसने से बहुत लोग उजड़ गए थे।
मुग़ल दौर में किसी बादशाह ने गांव में एक मस्जिद बना दी थी। दस पांच मुसलमान उसमें नमाज पढ़ लेते थे। उसमें एक कुआं भी था। गांव के हिन्दुओं को कुआं पूजन की ज़रूरत पड़ती थी तो वे मस्जिद के कुएं को ही पूज लेते थे। मुसलमान भी कोई ऐतराज़ न करते थे। न मुसलमानों को पता था कि क़ुरआन में क्या लिखा है और न हिन्दुओं ने ही कभी वेद देखे थे। दोनों अपने हिसाब से एडजस्ट होकर अपनी ज़िन्दगी का जुगाड़ फ़रारी की तरह मज़े से चला रहे थे।
लालवाणी जी गांव में पधारे तो उन्हें यह सब बड़ा अजीब लगा कि बंटवारे में इतना ख़ून बहा लेकिन फिर भी हिन्दू मुस्लिम प्रेम ख़त्म नहीं हुआ। वह पढ़े लिखे थे। उन्होंने दो चार शास्त्र भी ख़ुद ही बांच लिए थे। विदुर नीति से लेकर चाणक्य नीति तक सब उन्हें कंठस्थ थी। हिटलर के तो वह फ़ैन ही थे। इतनी योग्यता पा लेने के बाद वह गांव से भाईचारे को ख़त्म करने का बीड़ा कैसे न उठाते?
एक शाम कुआं पूजन करते वक़्त किसी बच्ची के हाथ से गुड़िया कुएं में गिर गई। लालवाणी जी ने चाय नाश्ते का ठेला लगाने के लिए मस्जिद का चबूतर क़ब्ज़ा लिया था। अपने ठेले के लिए पानी वह मस्जिद के कुएं से ही लाते थे। अगले दिन सुबह वह पानी लेने पहुंचे तो उनके सामने एक नमाज़ी ने कुएं से पानी खींचा तो उसके डोल में पानी के साथ एक गुड़िया भी निकल आई। लालवाणी जी के शातिर दिमाग़ को फ़ौरन शैतानी सूझ गई। वह वहीं से चिल्लाते हुए भागे कि काली प्रकट हो गई, काली प्रकट हो गई।
गांव के बच्चे बड़े सब इकठ्ठा हो गए। इतने में वह बच्ची भी आ गई, जिसके हाथ से वह गुड़िया गिरी थी। वह मौक़ा देखकर चुपके से अपनी गुड़िया उठाकर रफ़ूचक्कर हो गई। अब जो गुड़िया ग़ायब देखी तो लालवाणी जी ने फिर शोर मचा दिया कि काली अंतर्धान हो गई, काली अंतर्धान हो गई।
गांव के लोगों में काली की पूजा का कोई ख़ास क्रेज़ नहीं था। लालवाणी जी ने इस वाक़ये की न्यूज़ बनाकर मीडिया को दे दी। मीडिया ने तिल का ताड़ बनाकर पेश किया। ख़बर बंगाल पहुंची तो वहां से लोग आना शुरू हो गए। किसी में श्रद्धा थी और कोई महज़ पिकनिक के लिए आ गया था।  
लालवाणी जी ने अपनी मेहनत की कमाई से काली की एक मूर्ति बाज़ार से ख़रीदी और उसे अपने ठेले के पास में बिना प्राण प्रतिष्ठा के ही स्थापित कर दिया। यह एक इन्वेस्टमेन्ट था। इसके बाद उन्हें भारी आमदनी होनी तय थी और हुई भी। वह दूर दराज़ से आने वाले श्रद्धालुओं को काली के प्रकट होने की कथा मिर्च मसाले लगाकर सुनाते। कुछ समय के बाद उन्होंने यह भी कहना शुरू कर दिया कि काली माता ने उन्हें सपने में दर्शन देकर एक भव्य मंदिर बनाने का आदेश दिया है। उन्होंने फ़्लैक्सी पर एक भव्य भवन का नक्शा बनवाकर अपने ठेले पर ही टांग दिया। अब लोग उन्हें चंदा भी देने लगे। उनके चाय नाश्ते की सेल पहले ही बढ़ चुकी थी।
राजू ठाकुर, जोशीला मनोहर, कालू टंडन और क्षमा दीदी इनके काम में हाथ बंटाने लगे। जब ये छोटे थे तो ये सब लालवाणी जी के ठेले पर बर्तन धोया करते थे। अब ये बहती गंगा में हाथ धोने लगे। जस्सू चौधरी लालवाणी जी के पक्के यार थे। हालांकि वह पास के भूड़ गांव के थे लेकिन उनका दिन चाय के ठेले पर ही हंसते बतियाते बीतता था।

ठेले के आस पास के दुकानदारों की नाक में दम था। कभी उनकी दुकानों में धुआं आता था तो कभी जगह ख़ाली देखकर श्रद्धालु आ धमकते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनसे दुखी थे। कुछ ने तो अपनी दुकानें लालवाणी जी को औने पौने दामों में बेचकर अपनी जान की ख़ैर मनाई। श्रद्धालुओं की बढ़ती भीड़ देखकर मस्जिद के दो चार नमाज़ियों ने भी कुछ न करना ज़्यादा बेहतर समझा। थाने में शिकायत की ख़ानापूरी करके वे भी ख़ामोश रह गए।
लालवाणी जी देश भर में मशहूर हो गए। अब वे यात्राएं भी करने लगे थे। वे जहां भी जाते, वहीं प्रेम और भाईचारे का माहौल देखते। जिसे ख़त्म करने के लिए वे जी जान से जुटे हुए थे। उनकी यात्रा के बाद बहुत सी जगहों पर ख़न-ख़राबा और दंगा-फ़साद हुआ लेकिन अब उनका क़द इतना बड़ा हो चुका था कि क़ानून उन्हें सज़ा नहीं दे सकता था। दुनिया की अदालतें सज़ा हमेशा कमज़ोर को देती हैं। 
बहरहाल यात्राओं का दौर ख़त्म हुआ तो लालवाणी जी अपने गांव वापस लौटे। मन्दिर अब केवल कमाई का ज़रिया ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय गौरव का मुददा भी बन चुका था। पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि धुआंधार प्रचार से कैसे एक काल्पनिक चीज़ को राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनाया जाता है। आजकल सत्ता पाने के लिए यही टोटके काम में आते हैं। देश के लिए काला पानी की सज़ा भुगतने वाले नेताओं और क्रांतिकारियों के नाम जनता ने याद नहीं रखे। ऐसे में ऐसी भुलक्कड़ जनता के लिए कोई क्यों मरे, ऐसी जनता की बलि देकर सत्ता का सुख क्यों न भोगे?
लालवाणी जी अब सत्ता का सुख भोगना चाहते थे। उन्होंने एक पुरानी मरियल सी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। उनकी पार्टी जीती लेकिन गांव का प्रधान उनके बजाय कोई और बन गया। उन्होंने अपना नाम ख़ुद ही वेटिंग लिस्ट में डाल लिया। पड़ोस के रेतीले गांव से जस्सू चौधरी चुनाव जीत गए। अब वह धड़ाधड़ विदेश जाने लगे।
इसी दौरान एक नया बच्चा विकास चाय के ठेले के पर काम करने लगा। चाय बेचते बेचते वह बच्चे से पुरूष बन गया। सब उसे विकास पुरूष कहने लगे। वह नाम का ही विकास पुरूष न था बल्कि उसने वास्तव में ही बहुत विकास किया था। उसने चाय के ठेले को लालवाणी जी की ख़रीदी हुई दुकानों में ट्रांसफ़र करके उसे एक शानदार रेस्तरां का रूप दे दिया था।
पहले लालवाणी जी गांव के दूसरे लोगों की तरह कोयले इस्तेमाल करते थे लेकिन विकास पुरूष ने बाहर से गैस मंगवाई। जिसे देखकर गांव के लोगों ने भी गैस का इस्तेमाल शुरू कर दिया। गैस के व्यापारियों को विकास पुरूष के कारण एक नया बाज़ार हाथ आ गया था। विकास पुरूष ने मोबाईल और इंटरनेट का इस्तेमाल शुरू किया तो गांव के हर बुड्डे और जवान के हाथ में नई तकनीक आ गई। नई तकनीक का इस्तेमाल सही कम और ग़लत ज़्यादा हुआ। हॉलीवुड की पिक्चरें सरेआम और पोर्न पिक्चरें छिप छिपाकर देखी जाने लगीं। इससे पार्टनर की डिमांड क्रिएट हुई। डिमांड पैदा हुई तो पार्टनर का जुगाड़ भी गांव में ही होना शुरू हो गया। 
अब पिकनिक की भावना से आने वाले टूरिस्टों में भी पहले के मुक़ाबले बहुत इज़ाफ़ा हो गया। गांव की कुछ लड़कियां तो इन्हीं टूरिस्टों के साथ चली गईं। कुछ के पैर भारी हुए तो मां-बाप गांव से मुंह छिपाकर रात में निकल लिए। पहले किसी एकाध से भूल चूक हो जाती थी तो मां-बाप उसे ठिकाने लगाकर सुखऱ्रू होकर गांव में ही इज़्ज़त से रहते थे लेकिन अब इन लड़कियों का पूरा जत्था था। उन्हें इंटरनेट से नये नये क़ानूनों का अपडेट भी मिलता रहता था।
ऐसा नहीं है कि इनमें से हरेक के पैर भारी हुए ही थे। ज़्यादातर लड़कियां अपनी केयर करना जानती थीं। पूँजीपतियों ने इन लड़कियों को अपने प्रोडक्ट्स बेचने के साइन कर लिया। लड़कियों की लुभावनी अदाओं के साथ प्रोडक्ट्स का प्रचार हुआ तो सेल बढ़ गई। पूंजीपतियों को विकास पुरूष भा गया। यह सब उन्हें लालवाणी कहां दे पाए थे। वैसे भी अब लालवाणी उर्फ़ अड्डू दादा काफ़ी बूढ़े हो गए थे और उन्होंने ज़िन्दगी भर मन्दिर मुददे को भुनाने के सिवा कुछ और किया भी नहीं था। 
चुनाव क़रीब आए तो पूंजीपतियों ने ठान लिया कि इस बार गांव का प्रधान विकास पुरूष को ही बनाना है। उनकी नज़र गांव की सरकारी ज़मीन पर भी थी जो कि वहां स्कूल, पार्क और अस्पताल बनाने के लिए आवंटित की गई थी। पूंजीपति वहां अपनी फ़ैक्ट्रियां और मिलें खड़ी करना चाहते थे। इसके लिए वे किसानों की ज़मीनें भी हथियाना चाहते थे। उन्होंने विकास पुरूष का टी.वी., रेडियो और इन्टरनेट पर ऐसे ही प्रचार किया जैसे कि वे अपने प्रोडक्ट्स का करते थे।
प्रचार का असर रंग लाने लगा तो सबसे पहले अड्डू दादा का रंग उड़ा। वह प्रधान पद से अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं थे लेकिन आखि़रकार उन्हें छोड़नी ही पड़ी। पास के रेतीले गांव से जस्सू चौधरी को भी वह अपनी पार्टी का टिकट नहीं दिला पाए। जस्सू चौधरी को बुढ़ापे में निर्दलीय खड़ा होना पड़ा, महज़ अपनी आन बचाने के लिए। राजू ठाकुर, जोशीला मनोहर, कालू टंडन और क्षमा दीदी को भी विकास पुरूष के सामने पानी भरने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी पार्टी में सभी बंधक से होकर रह गए। हर अहम फ़ैसला विकास पुरूष लेने लगा। वह समझता था कि ऐसा करके वह गांव का प्रधान हो जाएगा।
जब अड्डू दादा ने देख लिया कि प्रधान पद तो मेरे हाथ से निकल ही गया तब उन्होंने तय किया कि वह विकास पुरूष को भी प्रधानमंत्री हरगिज़ न होने देंगे। ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने समर्थक राजू ठाकुर, जोशीला मनोहर, कालू टंडन और क्षमा दीदी वग़ैरह को बुलाकर एक ख़ुफ़िया मीटिंग की। इसके बाद जो हुआ वह एक लंबी कहानी है लेकिन कुल मिलाकर यह कि विकास पुरूष जीता तो सही लेकिन प्रधान पद मिला किसी और को। जीते लालवाणी जी भी हैं लेकिन अपमान के अहसास में जीत की ख़ुशी कहीं दब सी गई है। अलबत्ता उनके गुट के साथी विकास पुरूष का सबक़ सिखाकर ज़रूर अच्छा फ़ील कर रहे हैं।
जिन किसानों की ज़मीनें विकास पुरूष ने बहकाकर पूंजीपतियों को लगभग मुफ़त ही नाम करवा दी थीं। ज़मीन खोकर खाने के लिए किसानों को पैसे की ज़रूरत पड़ी तो उन्हें  पूंजीपतियों से भारी ब्याज पर क़र्ज़ लेना पड़ा। क़र्ज़ में दबकर किसी की पत्नी और किसी की बेटी को ब्याजख़ोर से दबना पड़ा और किसी को अपने गले में फंदा डालकर दुनिया से उठ जाना पड़ा। 
विकास पुरूष ने गांव के लिए जो कुछ किया है, उसे याद करके गांव के लोगों की आंखे भर आती हैं, आदर से नहीं बल्कि दर्द के मारे। लालवाणी जी भी कोठी में पड़े रोते रहते हैं। सोचते हैं कि जो सत्ता उनके हाथ ही नहीं आई, उसके लिए उन्होंने बेशुमार लोगों को मरवा दिया। अब अंत समय है। मरने के बाद पुण्य ही काम आना है और वह पाप के मुक़ाबले बहुत कम है। इसी वजह से अड्डू दादा आजकल आहत हैं।
विकास पुरूष आहत है या नहीं, हमें पता नहीं। किसी भाई बहन को उसका हाल चाल पता चले तो हमें भी बताना।